Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 484
________________ स्याद्वादाधिकार ४१३ अर्थात् समस्त ज्ञेयवस्तुओं से घटित होने पर ज्ञेयस्वरूप नहीं है, इस तरह ज्ञान के स्वतत्त्व-निजस्वरूप का अनुभव करता है। भावार्थ- संसार के समस्त पदार्थ ज्ञान के विषय हैं, इसलिये ‘समस्त विश्व ज्ञान है' ऐसा समझ एकान्तवादी अपने आपको विश्वमय मानता है समस्त संसार को स्वतत्त्व मानकर पशु की तरह स्वच्छन्द प्रवृत्ति करता है। परन्तु स्याद्वादी उस ज्ञानतत्त्व के निजस्वरूप को अच्छी तरह समझता है, वह जानता है कि ज्ञान, स्वरूप की अपेक्षा तद्रूप है, परस्वरूप की अपेक्षा तत्रूप नहीं है। इसीलिये ज्ञान, ज्ञेयों के आकार परिणमन हुआ भी उनसे भिन्न है। यह अतत्स्वरूप का द्वितीय भङ्ग है।।२४८॥ शार्दूलविक्रीडितछन्द बाह्यार्थग्रहणस्वभावभरतो विश्वग्विचित्रोल्लसज् ज्ञेयाकारविशीर्णशक्तिरभितस्त्रुट्यन् पशुर्नश्यति। एकद्रव्यतया सदाप्युदितया भेदभ्रमं ध्वंसय नेकं ज्ञानमबाधितानुभवनं पश्यत्यनेकान्तवित् ।।२४९।। अर्थ- बाह्य पदार्थों से ग्रहणरूप स्वभाव के भार से सब ओर से उल्लसित होनेवाले नाना ज्ञेयों के आकार से जिसकी शक्ति खण्ड-खण्ड हो गई है तथा इसी कारण जो सब ओर से टूट रहा है ऐसा अज्ञानी एकान्तवादी नाश को प्राप्त होता है और सदा उदित रहनेवाले एक द्रव्यस्वभाव से भेद के भ्रम को नष्ट करनेवाला अनेकान्त का जाननेवाला, जिसका निर्बाध अनुभव हो रहा है ऐसे ज्ञान को एक देखता है। भावार्थ- पदार्थों को ग्रहण करना ज्ञान का स्वभाव है उस स्वभाव के कारण उसमें सब ओर से अनेक ज्ञेयों के आकार उल्लसित होते रहते हैं इसलिये सर्वता एकान्तवादी अज्ञानी ज्ञान को अनेक खण्ड-खण्डरूप देखता हुआ ज्ञानमय आत्मा का नाश करता है परन्तु स्याद्वादी ज्ञान को ज्ञेयाकारों की अपेक्षा अनेकरूप होने पर भी सदा उदित रहनेवाले द्रव्यस्वरूप की अपेक्षा एक देखता है तथा इस एक ज्ञान के अनुभवन में कोई बाधा भी नहीं आती। यह एकस्वरूप तृतीय भङ्ग है।।२४९।। ___ शार्दूलविक्रीडितछन्द शेयाकारकलङ्कमेचकचिति प्रक्षालनं कल्पयन् एकाकारचिकीर्षया स्फुटमपि ज्ञानं पशुर्नेच्छति। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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