Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 486
________________ स्याद्वादाधिकार ४१५ द्रव्य के अस्तित्व से शून्य हुआ वह अज्ञानी नष्ट होता है। परन्तु स्याद्वादी ज्ञानी जीव के, ज्ञान में प्रतिबिम्बित ज्ञेय को देखते ही तत्काल ऐसा निर्मल ज्ञान प्रकट होता है कि जिसके प्रभाव से उसे ज्ञेय के अतिरिक्त ज्ञानरूप स्वीय द्रव्य का अस्तित्व स्पष्ट ही प्रतीत होने लगता है। फलस्वरूप वह स्वीय द्रव्य के अस्तित्व को स्वीकृत करता हुआ सदा जीवित रहता है। यह स्वद्रव्य की अपेक्षा अस्तित्व का पञ्चम भङ्ग है।।२५१।। शार्दूलविक्रीडितछन्द सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य पुरुषं दुर्वासनावासितः स्वद्रव्यभ्रमतः पशुः किल परद्रव्येषु विश्राम्यति स्याद्वादी तु समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तितां जाननिर्मलशुद्धबोधमहिमा स्वद्रव्यमेवाश्रयेत् ।।२५२।। अर्थ- मिथ्यावासना से वासित अज्ञानी एकान्तवादी, आत्मा को सर्व द्रव्यमय स्वीकार कर स्वद्रव्य के भ्रम से परद्रव्यों में विश्राम करता है। परन्तु निर्मल शुद्धज्ञान की महिमा का धारक स्याद्वादी समस्त वस्तुओं में परद्रव्यरूप से नास्तिता को जानता हुआ स्वद्रव्य का ही आश्रय करता है। भावार्थ- ज्ञानकी स्वच्छता के कारण ज्ञेयरूप से उसमें सर्व द्रव्यों का प्रतिबिम्ब पड़ता है एतावता उन प्रतिबिम्बित परद्रव्यों को स्वद्रव्य समझ कर अज्ञानी जीव उन्हीं में लीन रहता है अर्थात् वह ज्ञान को परद्रव्य रूप मानता है परन्तु जिनागम के अध्ययन से जिसके ज्ञान की महिमा निर्मल है ऐसा स्याद्वादी ज्ञानी पुरुष समस्त वस्तुओं में परद्रव्य के नास्तित्व को स्वीकृत करता हुआ सदा स्वद्रव्य में लीन रहता है। तात्पर्य यह है कि जीव समस्त पदार्थों को स्वद्रव्य की अपेक्षा अस्तिरूप और परद्रव्य की अपेक्षा नास्तिरूप श्रद्धान करता है। यह परद्रव्य की अपेक्षा नास्तित्व का षष्ठ भङ्ग है ।।२५२।। शार्दूलविक्रीडितछन्द भिन्नक्षेत्रनिषण्णबोध्यनियतव्यापारनिष्ठः सदा सीदत्येव बहिःपतन्तमभितः पश्यन्पुमांसं पशुः। स्वक्षेत्रास्तितया निरुद्धरभसः स्याद्वादवेदी पुन स्तिष्ठत्यात्मनिखातबोध्यनियतव्यापारशक्तिर्भवन्।।२५३।। अर्थ- जो भिन्न क्षेत्र में स्थित ज्ञेय पदार्थों के निश्चित व्यापार में स्थित है अर्थात् जो ऐसा मानता है कि ज्ञानरूप पुरुष (आत्मा) परक्षेत्र में स्थित पदार्थों को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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