Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 482
________________ स्याद्वादाधिकार ४११ जब वह ज्ञानमात्रभाव, अनित्य ज्ञानविशेषों के द्वारा खण्डित हो गया है नित्य सामान्यज्ञान जिसका, ऐसा होता हुआ नाश को प्राप्त होता है तब ज्ञानसामान्य की अपेक्षा नित्यपन को प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे उज्जीवित करता है। तात्पर्य यह है-एक तो सामान्यज्ञान है जो सदा विद्यमान रहने से नित्य कहलाता है और एक घटपटादिक का विशेषज्ञान है जो उत्पन्न होता और विनशता रहता है इसलिये अनित्य कहलाता है। जिस समय ज्ञान का अनित्य ज्ञानविशेषरूप परिणमन होता है उस समय नित्य ज्ञानसामान्य खण्डित हो जाता है एतावता ज्ञान के नाश का अवसर आता है तब अनेकान्त यह कहता हुआ उसे जीवित रखता है कि ज्ञानसामान्य की अपेक्षा ज्ञान नित्य है अर्थात् उसका नाश नहीं होता। विशेष ज्ञान उत्पन्न होता और विनशता रहता है, इसलिये उसकी अपेक्षा नाश भले ही हो, पर सामान्यज्ञान की अपेक्षा नहीं हो सकता ।।१३।। और जब वह ज्ञानमात्र भाव, नित्यज्ञान सामान्य को ग्रहण करने के लिये अनित्यज्ञानविशेष के त्यागद्वारा अपने आप का नाश करता है तब ज्ञानविशेषरूप से अनित्यता को प्रकट करता हुआ अनेकान्त ही उसे नष्ट नहीं होने देता है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान का, ज्ञानसामान्य और ज्ञानावशेष के भेद से दो प्रकार का परिणमन होता है। इनमें ज्ञानसामान्य नित्य है और ज्ञानविशेष अनित्य है। जिस समय ज्ञान, ज्ञानसामान्यरूप परिणमन को ग्रहण करने के लिये ज्ञानविशेषरूप परिणमन का त्याग करता है उस समय ज्ञान के नाश का प्रसङ्ग आता है परन्तु अनेकान्त यह प्रकट करता हुआ उसे नष्ट नहीं होने देता कि ज्ञानविशेष की अपेक्षा ही ज्ञान में अनित्यता हो सकती है, ज्ञानसामान्य की अपेक्षा नहीं। अर्थात् ज्ञानसामान्य की अपेक्षा उसका कभी नाश नहीं होता ।।१४।। भावार्थ- यहाँ तत्-अतत् के २ भङ्ग, एक-अनेक के २ भङ्ग, सत्-असत् के द्रव्यक्षेत्रकाल भाव की अपेक्षा ८ भङ्ग और नित्य-अनित्य के २ भङ्ग, इस प्रकार सब मिलकर १४ भङ्ग होते हैं। इन सभी भङ्गों में यह बताया गया है कि एकान्त से ज्ञानमात्र (आत्मा) का अभाव होता है और अनेकान्त से आत्मा जीवित रहता है। अर्थात् एकान्त से आत्मा का यथार्थ बोध नहीं होता और अनेकान्त से यथार्थ बोध होता है। अब इन १४ भङ्गों के १४ कलशा कहते हैं। उनमें प्रथम भङ्ग का कलशा इस प्रकार है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542