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मोक्षाधिकार
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अर्थ- जिनके चित्त की प्रवृत्ति अत्यन्त उत्कृष्ट है तथा जो मोक्ष के अभिलाषी हैं उन महानुभावों के द्वारा यही सिद्धान्त सेवन करने योग्य है कि मैं निरन्तर शुद्ध चेतनागुणविशिष्ट एक परमज्योतिस्वरूप हूँ तथा परमज्योति-चेतना के अतिरिक्त पृथक्लक्षण वाले जो ये नानाप्रकार के भाव उल्लसित हो रहे हैं—प्रकट हो रहे हैं वे मैं नहीं हूँ क्योंकि ये सभी इस संसार में मेरे लिये परद्रव्य हैं।
भावार्थ- परपदार्थ से भिन्न आत्मा की शुद्ध स्वाधीन परिणति का हो जाना मोक्ष है। इस मोक्ष के जो अभिलाषी है उन्हें सदा इस सिद्धान्त का मनन करना चाहिये कि मैं तो सदा एक चैतन्य-ज्योतिस्वरूप हूँ, वही मेरी शुद्ध स्वाधीन परिणति है और उसके सिवाय मुझमें जो राग, द्वेष, मोह आदि विकारीभाव उठ रहे हैं वे मेरे नहीं हैं, मोहकर्म के उदय में उत्पन्न होनेवाले विकारी भाव हैं, उनका नष्ट हो जाना ही मेरे लिये श्रेयस्कर है। जो महानुभाव इस प्रकार विचार करते हैं वे अवश्य ही एक दिन उन विकारीभावों की सत्ता को आत्मा से बहिष्कार कर देते हैं।।१८५।।
अनुष्टुप्छन्द
परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्येतैवापराधवान्।
बध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो मुनिः।। १८६।। अर्थ- जो परद्रव्य को ग्रहण करता है वह अपराधी है और जो अपराधी है वह बन्ध को प्राप्त होता ही है। जो स्वद्रव्य में संवृत है वही मुनि है, वही निरपराध है। अतएव वह बन्ध को प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ- लोक में जो परद्रव्य को ग्रहण करता है वह चोरी का अपराधी कहलाता है तथा इस अपराध के कारण बन्धन को प्राप्त होता है, परन्तु जो मनुष्य अपने द्रव्य में ही सन्तुष्ट रहकर कभी किसी के द्रव्य का ग्रहण नहीं करता है, वह अपराधी नहीं कहलाता और इसीलिये बन्धन को प्राप्त नहीं होता। इसी प्रकार मिथ्यात्व के उदय में जो परद्रव्य को अपना मानता है-उसकी संभाल में निमग्न रहता है वह आत्मा की आराधना से रहित होने के कारण अपराधी कहलाता है
और इसीलिये नियम से बन्ध को प्राप्त होता है, मिथ्यात्व को धारण करनेवाला चाहे गृहस्थ हो चाहे मुनि हो, नियम से उस गुणस्थान में बाँधनेवाली प्रकृतियों का बन्ध करता ही है, परन्तु जो स्वद्रव्य में ही संवृत रहता है अर्थात् आत्मा को ही स्वकीय द्रव्य मानता है और उसीकी शुद्ध परिणति में निमग्न रहता है, वह अपराध से रहित है तथा परमार्थ से मुनि है—ज्ञानी है, वह बन्ध को प्राप्त नहीं होता है।।१८६।।
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