Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 445
________________ ३७४ समयसार और जो आत्मा कर्मफल का अनुभव करता हुआ सुखी-दुःखी होता है वह दु:ख के बीज स्वरूप आठ प्रकार के कर्मों का फिर भी बन्ध करता है। विशेषार्थ- ज्ञान से भिन्न पदार्थ में 'यह मैं हूँ' इस प्रकार जो जानना है वह अज्ञान चेतना है। यह अज्ञानचेतना कर्मचेतना और कर्मफल चेतना के भेद से दो भेदवाली है। इन दोनों में ज्ञान से भिन्न पदार्थों में 'मैं इसे करता हूँ' ऐसा जो ज्ञान है इसी को कर्मचेतना कहते हैं तथा ज्ञान से भिन्न पदार्थों में 'मैं इसको भोगता हूँ' ऐसा जो आत्मा का अनुभवन है, इसी का नाम कर्मफल चेतना है। यह अज्ञान चेतना सम्पूर्णरूप से संसार का बीजभूत है क्योंकि संसार का बीज जो आठ प्रकार का कर्म है उसका यह बीज है। अत: मोक्षार्थी पुरुष के द्वारा अज्ञानचेतना के प्रलय (विनाश के) लिये सकल कर्मत्याग की भावना और सकल कर्मफलत्याग की भावना को प्रकट कर स्वभावभूत भगवती एक ज्ञानचेतना को ही निरन्तर प्रकट करना चाहिये। इन दोनों में सकल कर्मत्याग की भावना को कलशा द्वारा प्रकट करते हैं आर्याछन्द कृतकारितानुमननैस्त्रिकालविषयं मनोवचनकायैः। परिहृत्य कर्म सर्वं परमं नैष्कर्म्यमवलम्बे।।२२४।। अर्थ- कृत, कारित, अनुमोदन और मन-वचन-काय के द्वारा तीन काल सम्बन्धी जो कर्म मेरे द्वारा किये गये हैं उन सबका परिहार कर मैं परम निष्कर्मभाव का आलम्बन करता हूँ। आगे इन्हीं के भङ्गों का वर्णन करते हैं—मन, वचन और काय ये तीन हैं तथा कृत, कारित और अनुमोदना भी तीन हैं। इनमें मन, वचन, काय इनके स्वतन्त्र एक-एक के द्वारा जो किया जावे वह तीन प्रकार का होता है तथा मनवचन, मनकाय और वचनकाय इस तरह दो-दो को मिलाकर तीन भङ्ग हुए तथा मन, वचन काय इन तीनों के द्वारा भी मिलकर एक भङ्ग हुआ, इस तरह सात भङ्ग होते हैं। इसी तरह कृत, कारित और अनुमोदना इन तीन के भी सात भङ्ग होते हैं। इन दोनों सात-सात भङ्गों को परस्पर गुणित करने से ४९ भङ्ग होते हैं। इस तरह प्रतिक्रमण ४९ तरह का होता है। इन्हीं भेदों को स्पष्ट करते हैं-प्रतिक्रमण करने वाला कहता है कि जो पाप मैंने अतीतकाल में किया था, अन्य के द्वारा कराया था तथा अन्य के द्वारा किये गये पाप की अनुमोदना की थी, वह मन, वचन और काय से मिथ्या हो१, जो पाप अतीतकाल में मैंने किया अन्य के द्वारा कराया था, तथा अन्य के द्वारा किये गये पाप की अनुमोदना की थी, वह मन और वचन से मिथ्या हो२, For Personal & Private Use Only . Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542