Book Title: Samaysara
Author(s): Ganeshprasad Varni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 458
________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार तो यही होता है कि पानी उष्ण है । परन्तु परमार्थ से विचार करने पर उष्णता अग्नि की ही है, पानी की नहीं। कुछ समय के अनन्तर अग्नि का सम्बन्ध दूर होने पर पानी शीतल हो जाता है। इससे प्रतीत होता है कि शीतलता पानी का स्वकीय धर्म है और उष्णता परजन्य। स्वभाव की चर्चा में परजन्य विभाव का स्थान नहीं है । निश्चयनय स्वभाव का ही वर्णन करता है । अतः उसकी दृष्टि में आत्मा अपने चैतन्यस्वभाव का ही भोक्ता है। परन्तु व्यवहारनय से आत्मा कर्मों का कर्त्ता तथा उनके फल का भोक्ता कहलाता है, निश्चय की दृष्टि से न कर्त्ता है न भोक्ता है ।। ३८७ । ३८९।। आगे निखिल कर्मफलों का त्याग करने से आत्मा चैतन्यत्त्व को प्राप्त होता है यह दिखाने के लिये कलशा कहते हैं वसन्ततिलकाछन्द निःशेषकर्मफलसंन्यसनान्ममैवं सर्वक्रियान्तरविहारनिवृत्तवृत्तेः । चैतन्यलक्ष्म भजतो भृशमात्मतत्त्वं कालावलीयमचलस्य वहत्वनन्ता ।। २३० ।। अर्थ - इस प्रकार समस्त कर्मों के फल का परित्याग करने से जिसकी अन्य समस्त क्रियाओं सम्बन्धी विहार से वृत्ति दूर हट गई है तथा जो स्वरूप में अचल है, ऐसी मेरी यह अनन्तकाल की परम्परा अतिशयरूप से चैतन्यलक्षणवाले आत्मतत्त्व की उपासना करते हुए ही व्यतीत हो । Jain Education International भावार्थ- जब ज्ञानी जीव पूर्वोक्त प्रकार से समस्त कर्मफलों का त्याग कर चुकता है तब उसकी कर्मोदय से जायमान अन्य क्रियाओं सम्बन्धी उपभोग से वृत्ति स्वयं हट जाती है तथा वह स्वकीय स्वरूप में निश्चल हो जाता है । उस दशा में उसकी चैतन्य लक्षण वाले आत्मतत्त्व पर ही दृष्टि रुकती है। उसी की उसे बार-बार अनुभूति होती है और उस अनुभूति में वह ऐसा अद्भुत आनन्द निमग्न होता है कि उसकी ऐसी भावना होने लगती है कि मेरा अनन्तकाल इसी आत्मतत्त्व की उपासना करते-करते ही व्यतीत हो, एकक्षण के लिये भी मेरा उपयोग अन्य विषयों में न जावे ।।२३० । वसन्ततिलकाछन्द ३८७ यः पूर्वभावकृतकर्मविषद्रुमाणां भुङ्कते फलानि न खलु स्वत एव तृप्तः । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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