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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
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अथवा नहीं है ? इस प्रकार वैत्य और श्वेतक इन दोनों तत्त्वों के पारस्परिक सम्बन्ध की मीमांसा की जाती है। यदि सेटिका भित्ति आदि परद्रव्य की है ऐसा माना जावे तो 'जो जिसका होता है, वह उसी रूप होता है, जैसे कि आत्मा का ज्ञान आत्मा रूप ही है' इस तत्त्वसम्बन्ध के जीवित रहते हुए यदि सेटिका को भित्ति आदिकी मानी जावे तो उसे भित्ति आदिरूप ही होना चाहिए। और ऐसा होने पर स्वद्रव्य का उच्छेद हो जायेगा अर्थात् सेटिका भित्ति आदिरूप होकर अपनी सत्ता ही समाप्त कर देगी, परन्तु द्रव्य का उच्छेद होता नहीं है क्योंकि द्रव्यान्तर संक्रमण का अर्थात् एकद्रव्य का दूसरे द्रव्यरूप होने का निषेध पहले ही किया जा चुका है। इससे यह सिद्ध हुआ कि सेटिका भित्ति आदि की नहीं है । यहाँ यह आशङ्का होती है कि यदि सेटिका भित्ति आदि की नहीं है तो किसकी है? इसका उत्तर है कि सेटिका सेटिका की है। इस स्थिति में पुन: आशङ्का होती है कि वह अन्य सेटिका कौन है, जिसकी कि यह सेटिका है? इसका उत्तर यह ले कि अन्य सेटिका नहीं है किन्तु स्व और स्वामी के अंश ही अन्य हैं अर्थात् आप ही स्व है और आप ही अपना स्वामी है। जैसे देवदत्त के एक ही पुत्र था, उससे किसी ने पूछा- आपका बड़ा पुत्र कौन है ? उसने कहा, यही । मध्यम कौन है? उसने कहा- यही और जघन्य कौन है ? यही । उसी प्रकार आप में ही अंश अंशी की कल्पना से इस व्यवहार की उपपत्ति कर लेना चाहिये। कोई पूछता है कि इस स्व-स्वामी अंश के व्यवहार से साध्य क्या है ? कौन - सा प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है? इसका उत्तर है कि कुछ भी नहीं। तब यही निश्चय हुआ कि सेटिका किसी अन्य की नहीं किन्तु सेटिका सेटिका की ही है। जैसा यह दृष्टान्त है वैसा ही दृष्टान्त से प्रतिफलित होनेवाला दृष्टान्तिक है।
जैसे
यहाँ चेतयिता दर्शनगुण से परिपूर्ण स्वभाववाला द्रव्य है और व्यवहार से उसका दृश्य अर्थात् देखने के योग्य पुद्गलादि परद्रव्य है। अब यहाँ दर्शक जो चेतयिता है वह दृश्यरूप पुद्गलादि परद्रव्य का है अथवा नहीं है ? इस प्रकार दृश्य और दर्शक दोनों तत्त्वों के सम्बन्ध की मीमांसा की जाती है—
यदि चेतयिता अर्थात् दर्शक आत्मा पुद्गलादिका है तो 'जो जिसका होता है वह उसी रूप होता है, जैसे ज्ञान आत्मा का होता हुआ आत्मा ही होता है । ' इस प्रकार के तत्त्व-सम्बन्ध के जीवित रहते हुए चेतयिता को यदि पुद्गलादिक का माना जावे तो उसे पुद्गलादि रूप ही हो जाना चाहिये और ऐसा होने पर चेतयिता का स्वद्रव्योच्छेद हो जावेगा अर्थात् चेतयिता पुद्गलादिरूप होकर अपनी सत्ता ही समाप्त कर देगा। परन्तु द्रव्य का उच्छेद कभी होता नहीं है क्योंकि द्रव्यान्तर संक्रमण का पहले ही निषेध किया जा चुका हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि चेतयिता
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