________________
३४६
समयसार
के लाभ से वञ्चित रहते हैं क्योंकि सूत्र के बिना केवल मोतियों से हार की उत्पत्ति सम्भव नहीं। इसी प्रकार जो मनुष्य आत्मा की समय-समयव्यापी पर्यायों को तो देखते हैं परन्तु उन सब पर्यायों में अनुस्यूत रहनेवाले द्रव्य को नहीं देखते वे आत्मा से वञ्चित हैं। दृश्यमान पुद्गलद्रव्य के समान आत्मा भी द्रव्य और पर्यायरूप ही प्रत्येक ज्ञानी जीव के अनुभव में आ रहा है, फिर भी बौद्धों की दृष्टि इस परमार्थसत्य की ओर नहीं जाती। अतएव आचार्य ने उन्हें 'अन्धक' और 'पृथुक' (बालकअज्ञानी) जैसे शब्दों से निर्दिष्ट किया है तथा प्रत्यक्षसिद्ध वस्तुस्वरूप का अपलाप करने के कारण 'अहो' शब्द के द्वारा आश्चर्य प्रकट किया है ।।२०७।।
शार्दूलाविक्रीडितछन्द कर्तुर्वेदयितुश्च युक्तिवशतो भेदोऽस्त्वभेदोऽपि वा
कर्ता वेदयिता च मा भवतु वा वस्त्वेव संचिन्त्यताम्। प्रोता सूत्र इवात्मनीह निपुणैर्भेत्तुं न शक्या क्वचि
च्चिच्चिन्तामणिमालिकेयमभितोऽप्येका चकास्त्वेव नः ।।२०८।। अर्थ- कर्ता और भोक्ता में युक्ति के वश से भेद हो अथवा अभेद हो, जो कर्ता है वह भोक्ता होवे अथवा न होवे, मात्र वस्तु का ही विचार किया जावे, चतुर मनुष्यों के द्वारा सूत में गुम्फित मणियों की माला के समान जो कहीं भेदी नहीं जा सकती, ऐसी ज्ञानी मनुष्यों के द्वारा आत्मा में गुम्फित यह एक चैतन्य रूप चिन्तामणिरत्नों की माला ही मेरे सब ओर सुशोभित हो।
भावार्थ- वस्तु द्रव्यपर्यायस्वरूप है। आत्मा भी वस्तु है, अत: वह भी द्रव्यपर्यायस्वरूप है। जब द्रव्य की अपेक्षा विचार किया जाता है तब जो कर्ता है वही भोक्ता है, यह विकल्प आता है और जब पर्याय की अपेक्षा विचार किया जाता है तब जो कर्ता है वह भोक्ता नहीं है, ऐसा विकल्प आता है। आचार्य कहते हैं कि नयविवक्षा से वस्तु जैसी है वैसी रहे, उस विकल्प में न पड़कर मात्र वस्तु का चिन्तन करना चाहिये। जिस प्रकार चतुर मनुष्यों के द्वारा सूत में पिरोये हुए मणियों की माला भेदरूप न होकर अभेदरूप से एक माला ही मानी जाती है उसी प्रकार ज्ञानी मनुष्यों के द्वारा आत्मा में अनुभूत जो चैतन्यगुणरूप चिन्तामणिरत्नों की माला है वह भेदरूप न होकर अभेदरूप एक चेतनद्रव्य ही है। आचार्य इच्छा प्रकट करते हैं कि यह एक अखण्ड चेतनद्रव्य ही मेरे लिये उपहब्ध हो अर्थात् तथाभूत ही मेरी परिणति हो ।।२०८।।
अब व्यवहार और निश्चयदृष्टि से कर्ता-कर्म का प्रतिपादन करने के लिये कलशा कहते हैं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org