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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
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अर्थ- कितने ही आत्मघाती पुरुषों ने आत्मा के कर्तापन का निराकरण कर तथा 'कर्म ही रागादिक भावों का कर्ता है' ऐसी तर्कणा कर 'यह आत्मा कथञ्चित् रागादिक भावों का कर्ता है' इस निर्बाध श्रुति को कुपित किया है। प्रचण्ड मोह से जिनकी बुद्धि आवृत हो गई, ऐसे उन पुरुषों के ज्ञान की शुद्धि के लिये स्याद्वाद के प्रतिबन्ध से विजय प्राप्त करनेवाली वस्तुस्थिति कही जाती है।
भावार्थ- सांख्यमत का अनुसरण करने वाले कितने ही पुरुष आत्मा को सर्वथा अकर्ता मान द्रव्यकर्म को ही रागादिक भावों का कर्ता मानते हैं। सो ऐसा माननेवाले पुरुष ‘आत्मा कथंचित् रागादिक भावों का कर्ता है' इस निर्बाघ जिनवाणी को कुपित करते हैं उसके विरुद्ध आचरण करते हैं। वैभाविक शक्ति के कारण आत्मा में रागादिरूप परिणमन करने की योग्यता है, इस योग्यता की अपेक्षा रागादिक का कर्ता आत्मा है। परन्तु यह योग्यता द्रव्यकर्म के विपाक के बिना विकसित नहीं होती। इसलिये निमित्त प्रधान दृष्टि में रागादिक का कर्ता आत्मा नहीं है किन्तु द्रव्यकर्म का विपाक है। ऐसा जिनवाणी का कथन निर्बाघ है-उसका कोई खण्डन नहीं कर सकता। जिन पुरुषों की बुद्धि तीव्र मिथ्यात्व के उदय से आवृत हो गई है उन्हें वस्तु का वास्तविक स्वरूप दृष्टिगत नहीं होता, अतएव उनके ज्ञान की शुद्धि के लिये यहाँ स्याद्वाद के द्वारा लगाये हुए प्रतिबन्ध से- स्वच्छन्द मान्यताओं की रुकावट से विजय प्राप्त करनेवाली वस्तुस्थिति कही जाती है।।२०३।।
आगे उसी वस्तुस्थिति को कहते हैंकम्मेहिं दु अण्णाणी किज्जइ णाणी तहेव कम्मेहिं । कम्मेहिं सुवाविज्जइ जग्गाविज्जइ तहेव कम्मेहिं ।।३३२॥ कम्मेहिं सुहाविज्जइ दुक्खाविज्जइ तहेव कम्मेहिं । कम्मेहिं य मिच्छत्तं णिज्जइ णिज्जइ असंजमं चेव ।।३३३।। कम्मेहिं भमाडिज्जइ उड्डमहो चावि तिरियलोयं य। कम्मेहिं चेव किज्जइ सुहासुहं जित्तियं किंचि ।।३३४।। जह्मा कम्मं कुव्वइ कम्मं देई हरत्ति जं किंचि । तह्मा उ सव्वजीवा अकारया हुंति आवण्णा ।।३३५।। पुरिसित्थियाहिलासी इत्थीकम्मं च पुरिसमहिलसइ । एसा आयरियपरंपरागया एरिसी दु सुई ।।३३६।।
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