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निर्जराधिकार
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हैं और न उसे स्वीकार ही करते हैं। इसी पद्धति का अनुसारण करके सम्यग्ज्ञानी जीव अपने निज स्वभाव को ही स्वकीय धन जानते हैं और उसी को ग्रहण करते हैं। परपदार्थ को अपना धन नहीं मानते हैं और न उसको ग्रहण करने का प्रयास करते हैं। यही मुख्य हेतु है कि षट्खण्डाधिपति होकर भी वे अणुमात्र भी उसमें अपना नहीं मानते, इसीसे निरन्तर कमलपत्र की तरह अलिप्त रहते हैं।।२०७।।
आगे इसी अर्थ को युक्ति से दृढ़ करते हैंमज्झं परिग्गहो जइ तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज।
णादेव अहं जह्या तह्या ण परिग्गहो मज्झ।।२०८।।
अर्थ-यदि परद्रव्य मेरा परिग्रह हो जावे, तो मैं अजीवनपन को प्राप्त हो जाऊँ, क्योंकि मैं तो ज्ञानी हूँ, इसलिये परिग्रह मेरा नहीं है।
विशेषार्थ-यदि मैं परद्रव्य रूप अजीव को ग्रहण करूँ तो निश्चय ही यह अजीव मेरा स्वीय धन हो जावे और मैं इस अजीव का निश्चय से स्वामी हो जाऊँ। परन्तु ऐसा होता नहीं, यदि ऐसा होने लगे, तो वस्तु की मर्यादा का ही लोप हो जावेगा, और यह इष्ट नहीं। अत: जो अजीव का स्वामी है वह निश्चय से अजीव ही है, यदि मैं अजीव का स्वामी हो जाऊँ तो निश्चय से मेरे अजीवपन आ जावेगा, परन्तु मेरा तो एक ज्ञायकभाव ही है, वही मेरा स्वीय धन है और इसी एक ज्ञायकभाव का मैं स्वामी हूँ। इसलिये मेरे अजीवनपन न हो, मैं तो ज्ञाता ही रहूँगा, अत: परद्रव्य को नहीं ग्रहण करता हूँ, यह मेरा दृढ़ निश्चय है।।२०८।।
आगे इसी अर्थ को और भी दृढ़ करते हैंछिज्जदु वा भिज्जदु वा णिज्जदु वा अहव जादु विप्पलयं। जह्या तह्या गच्छदु तह वि हु ण परिग्गहो मज्झ।।२०९।।
अर्थ-ज्ञानी जीव के ऐसा दृढ़ निश्चय है कि परिग्रह छिद जावे, भिद जावे, अथवा कोई उसे ले जावे अथवा वह नष्ट हो जावे अथवा जिस किसी तरह से चला जावे, तो भी परिग्रह मेरा नहीं है।
विशेषार्थ-जब सम्यग्ज्ञानी यह निश्चय कर चुका कि परवस्तु हमारी नहीं है तब उसकी कुछ भी अवस्था हो, उससे हमें क्या प्रयोजन है? वह छिद जावे अथवा भिद जावे अथवा चली जावे अथवा नष्ट हो जावे, अथवा जिस किसी अवस्था को प्राप्त होवे, उसमें मेरा अणुमात्र भी नहीं है, अतएव मैं परिग्रह को नहीं ग्रहण करता हँ, क्योंकि परद्रव्य मेरा स्वीय धन नहीं है, इसीसे मैं उसका स्वामी नहीं हूँ, परद्रव्य
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