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समयसार
अनाकुल स्वभाव वाला होने से दुःख का कारण नहीं है। इस प्रकार आत्मा और आस्रव के विशेष के देखने से जिस काल में यह आत्मा आस्रव और आत्मा के भेद को जानता है, उसी काल में क्रोधादिक आस्रवों से पृथक् हो जाता हैं, क्योंकि क्रोधादिक आस्रव से निवृत्त हुए बिना पारमार्थिक भेदज्ञान की सिद्धि होना असंभव है। इसीसे क्रोधादिक आस्रवों से निवृत्त होनेपर ही सम्यग्ज्ञान का होना अविनाभावी है। इस सम्यग्ज्ञान से ही अज्ञानजन्य पौद्गलिक कर्म का बन्ध रुक जाता है।
यहाँ पर किसी की आशङ्का है कि जो यह आत्मा और आस्रव का भेदज्ञान है, वह क्या ज्ञानस्वरूप है? या अज्ञानस्वरूप है? यदि अज्ञानस्वरूप है तो आस्रव के साथ होने वाले अभेदज्ञान से इसमें कुछ विशेष नहीं हुआ। अर्थात् अन्तर नहीं आया और यदि ज्ञानस्वरूप है तो क्या आस्रवों में प्रवृत्त है या आस्रवों से निवृत्त है? यदि आस्रवों में प्रवृत्त है तो आस्रवों के साथ अभेदज्ञान होने से कोई भी विशेष नहीं हआ। यदि आस्रवों से निवृत्त है तब ज्ञान से ही बन्ध-निरोध सिद्ध क्यों न हुआ? इस अवस्था में क्रियानयवादी का जो यह पक्ष था कि क्रिया से ही आस्रव की निवृत्ति हुई, ज्ञान में क्या रखा है? उसका निषेध हो गया, क्योंकि जब तक सम्यग्ज्ञान न हो जावे तब तक केवल ऊपरी क्रियाकाण्ड से कुछ होनेवाला नहीं है। अब ज्ञान से ही सिद्धि मानने वालों का कहना है कि आत्मा और आस्रव का जो भेदज्ञान है वह सिद्धि का कारण है। इसपर आचार्य महाराज का कहना है कि आत्मा और आस्रव का जो भेदज्ञान है यदि वह आस्रव से निवृत्ति नहीं करता तो वह ज्ञान ही नहीं है। इससे जो ज्ञान से ही सिद्धि माननेवाले हैं उनका निराकरण हो गया। अर्थात् जिस ज्ञान के होने पर आस्रवादि की निवृत्ति नहीं होती है वह ज्ञान सिद्धि का जनक नहीं है तथा जिस चारित्र की प्रवृत्ति सम्यग्ज्ञान पूर्वक नहीं वह चारित्र भी संसार-लतिका के छेदने में समर्थ नहीं होता, अत: सम्यग्ज्ञान पूर्वक जो आचरण है वही मोक्षमार्ग में सहायी है। ऐसा जानकर मात्र ज्ञान अथवा मात्र क्रिया के द्वारा सिद्धि होने के पक्षपात को त्यागो, क्योंकि दोनों का सहयोग ही सिद्धि का प्रयोजक है- मोक्ष का साधक है।।७२।। यही भाव श्री अमृतचन्द्र स्वामी कलशा द्वारा अभिव्यक्त करते हैं
__ मालिनीछन्द परपरिणतिमुज्झत् खण्डयद्भेदवादा
निदमुदितमखण्डं ज्ञानमुच्चण्डमुच्चैः। ननु कथमवकाशः कर्तृकर्मप्रवृत्ते
रिह भवति कथं वा पौद्गलः कर्मबन्धः ।।४७।।
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