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समयसार
तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं व्रजेत्
तत्कि ज्ञानघनस्य बन्धनमहो भूयो भवेदात्मनः।।५५।। अर्थ- अहो, निश्चय से इस संसार में मोही जीवों के जब से संसार है तभी से 'मैं परद्रव्य का कर्ता हूँ, ऐसा बहुत भारी दुर्निवार महान् अहंकाररूपी अन्धकार चला आ रहा है। सो वह अन्धकार वास्तविक अर्थ के ग्रहण करने से यदि एक बार भी विलय को प्राप्त हो जावे तो फिर ज्ञानघन आत्म का बन्धन क्या हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता।
भावार्थ- संसार में अज्ञानी जीव अनादिकाल से अपने आपको पर का कर्ता मानकर कर्मों का बन्ध कर रहा है। अपने आपको पर का कर्ता मानना ही मिथ्यात्व है और मिथ्यात्व ही कर्म बन्ध का प्रमुख कारण है। यहाँ मिथ्यात्व को दुर्निवार अन्धकार का रूपक दिया गया है। वस्तु का परमार्थ स्वरूप समझने से वह मिथ्यात्वरूपी अन्धकार यदि एक बार भी नष्ट हो जाता है तो फिर यह जीव अनन्त संसार तक बन्धन का पात्र नहीं रह सकता, क्योंकि मिथ्यात्व का क्षय कर सम्यक्तव की प्राप्ति उसी जीव को होती है जिसका संसार का काल अधिक-से-अधिक अर्धपुद्गल परावर्तनमात्र रह गया हो।
___ अनुष्टुप्छन्द आत्मभावान् करोत्यात्मा परभावान् सदा परः।
आत्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते।।५६।। अर्थ- आत्मा सदा आत्मभावों को ही करता है और परद्रव्य परभावों को ही करता है, आत्मा के भाव आत्मा ही हैं और पर के भाव पर ही हैं।
भावार्थ- ‘संसार का प्रत्येक द्रव्य सदा अपने-अपने भावों का कर्ता है' इस सिद्धान्त से आत्मा आत्मा के ही भावों का कर्ता है और आत्मा के अतिरिक्त जो परद्रव्य हैं वे अपने भावों के कर्ता हैं। भाव और भावान् में परमार्थ से कोई भेद नहीं है, इसलिये आत्मा के जो भाव हैं वे आत्मा ही हैं और पर के भाव हैं वे पर ही हैं।। ५६।।
आगे मिथ्यात्व आदि भावों की द्विविधरूपता का वर्णन करते हैंमिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णाणं ।
अविरदि जोगो मोहो कोहादीया इमे भावा ।।८७।। अर्थ- जो पहले मिथ्यात्व कहा गया है वह जीव और अजीव के भेद से दो प्रकार का है, उसी प्रकार अज्ञान जो है वह भी जीव व अजीव के भेद से दो
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