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कर्तृ-कर्माधिकार
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तरह आत्मा अपने ज्ञान का ही कर्ता है। इसी पद्धति से ज्ञानावरण पद को परिवर्तित कर कर्मसूत्र के विभागोपन्यास द्वारा दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय इन सात सूत्रों के साथ मोह, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन- ये सोलह सूत्र व्याख्यान करने के योग्य हैं। इसी रीति से अन्य का भी ऊहापोह कर लेना चाहिये।।१०१।।
आगे ज्ञानी की तो कथा दूर रही, अज्ञानी भी परभाव का कर्ता नहीं होता है, यही दिखाते हैं
जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता। तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा।।१०२।।
अर्थ- आत्मा जिस शुभ-अशुभ भाव को करता है निश्चय से वह उसका कर्ता होता है और वह भाव उस आत्मा का कर्म होता है तथा वही आत्मा उस भाव का भोक्ता होता है।
भावार्थ- निश्चय से इस संसार में यह आत्मा अनादिकालीन अज्ञान के प्रभाव से पर और आत्मा में एकत्व का अध्यास कर रहा है। उस एकत्वाध्यास के कारण मन्द और तीव्र स्वादवाली पौद्गलिक कर्मों की विपाकदशा से यद्यपि स्वयं कभी चलायमान न होनेवाले एक विज्ञानघन स्वाद से युक्त है तो भी उसके स्वाद में भेद डालता हुआ अज्ञानरूप जिस शुभ-अशुभ को करता है उस भाव से उस काल में तन्मयीभाव होने से व्यापक होने के कारण आत्मा उस भाव का कर्ता होता है और वह भाव तन्मयीभाव होने से व्याप्य होने के कारण आत्मा का कर्म होता है तथा वहीं आत्मा उस काल में तन्मयीभाव से भावक होने के कारण उस भाव का भावक अर्थात् अनुभव करनेवाला होता है और वह भाव भी तन्मयीभाव से भाव्य होने के कारण आत्मा का अनुभाव्य अर्थात् अनुभव करने योग्य होता है। तात्पर्य यह हुआ कि अज्ञानी आत्मा उस शुभादिक भाव का अनुभव करनेवाला होता है और वह भाव उस आत्मा के अनुभव में आने से अनुभाव्य कहलाता है। इस पद्धति से अज्ञानी जीव भी परभाव का कर्ता नहीं होता है।
यद्यपि आत्मा परमार्थ से अपने एक विज्ञानघन स्वाद से कभी विचलित नहीं होता तो भी पुद्गलमय कर्म के मन्दोदय में शुभरूप और तीव्रोदय में अशुभ रूप परिणाम करता हआ उसके साहजिक स्वभाव में भेद डाल देता है। यह शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के भाव आत्मा के अज्ञानमय भाव हैं और वे वास्तव में आत्मस्वभाव से भिन्न हैं, परन्तु अनादिकालीन अज्ञान के कारण यह जीव उन्हें
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