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संवराधिकार
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के बल से रागादिक रूप विभावभावों के समुदाय का नाश हो जाता है और रागादिकों के नाश से कर्मों का बन्ध न होकर संवर होता है। तदनन्तर परम संतोष को धारण करने वाले ऐसे ज्ञान का उदय होता है जिसका प्रकाश अत्यन्त निर्मल है, जो अम्लान है, एक है, ज्ञान में ही स्थिर है, और नित्य उद्योत से सहित है। अर्थात् क्षायोपशमिक ज्ञान में यह सब विशेषताएँ नहीं थीं, जो अब केवलज्ञान में प्रकट हुई हैं।।१३२।।
इस तरह संवर रंगभूमि से बाहर निकल गया।
इस तरह श्रीकुन्दकुन्दाचार्य विरचित समयप्राभृत में संवरतत्त्व का वर्णन
करनेवाले पञ्चम अधिकार का प्रवचन पूर्ण हुआ।।५।।
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