________________
१०६
समयसार
था, पर जब चारित्र रूप पुरुषार्थ के द्वारा वह जीव और अजीव को अर्थात् जीव और रागादिक विकारी परिणति को वास्तव में अलग-अलग कर देता है— वीतराग दशा को प्राप्त कर लेता है तब अन्तर्मुहूर्त में ही अपनी चैतन्य शक्ति के द्वारा समस्त विश्व को व्याप्त कर अर्थात् केवल ज्ञान का विषय बनाकर यह ज्ञायक आत्मद्रव्य स्वयं ही प्रकाशमान हो उठता है । यहाँ कार्य की शीघ्रता बतलाने के लिये आचार्य
कहा है कि जीव और अजीव जब तक विघटन को प्राप्त नहीं हो पाते कि उसके पहले ही ज्ञायक आत्मद्रव्य प्रकट प्रकाशमान होने लगता है। वास्तव में क्रम यह है कि पहले जीव और अजीव का भेदज्ञान होता है, तदनन्तर आत्मद्रव्य भासमान होता है ।। ४५ ।।
इस तरह जीव और अजीव पृथक् होकर रङ्गभूमि से बाहर निकल गये।।६८।।
इस प्रकार श्रीकुन्दकुन्दाचार्यप्रणीत समयप्राभृतके जीवाजीवाधिकारका प्रवचन समाप्त हुआ । । १ । ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org