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जीवाजीवाधिकार
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है। इसलिये विवेचन करनेवाले आचार्यों ने चैतन्य को ही जीव का लक्षण बताया है। उसे ही स्वीकृत करना चाहिये, क्योंकि यह चैतन्य समुचित है अर्थात् असंभव दोष से रहित है, अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोष से वर्जित है, व्यक्त है अर्थात् प्रकटरूप से अनुभव में आता है, जीवतत्त्व को प्रकट करनेवाला है और अचल-अविनाशी है।
भावार्थ- अमूर्तिकपन जीव का लक्षण नहीं हो सकता, क्योंकि अजीव पदार्थ दो प्रकार के हैं—एक तो मूर्तिक, जैसे पुद्गल और एक अमूर्तिक, जैसे धर्म, अधर्म आकाश और काल। इसलिये अमूर्तिकपन की उपासना कर जगत् के जीव-जीवतत्त्व का अवलोकन नहीं कर सकते, क्योंकि अमूर्तिकपन आकाशादि में भी रहता है। ऐसा विचार कर विवेचक जीवों ने अव्याप्ति तथा अतिव्याप्ति दोषों से रहित व्यक्त रूप से जीव का लक्षण चैतन्य ही स्वीकृत किया है। लक्षण वही हो सकता है जो अव्याप्ति, अतिव्याप्ति तथा असम्भव दोषों से रहित है। यदि जीव का लक्षण रागादिक माना जावे तो इसमें अव्याप्ति दोष आवेगा, क्योंकि लक्षण का फल लक्ष्य को अलक्ष्य से पृथक् कराना है। जैसे प्रकृत में यदि जीव का लक्षण रागादि माना जावे तो इस प्रकार की अनुमिति होगी कि 'जीव अजीवादि पञ्चपदार्थों से भिन्न है क्योंकि रागादिमान् है'। यहाँ पर जीव पक्ष है, अजीवादि भिन्नपन साध्य है, रागादि मत्त्व हेतु है। हेतु को अपने पक्षमात्र में रहना चाहिये, सो जब जीव की मोहिनीयादि कर्मों का अभाव होनेपर वीतराग दशा हो जाती है तब यह रागादिमत्त्व हेतु उस जीव में नहीं रहता, अत: भागासिद्ध दोष होने से जीव की अजीव से भिन्न सिद्ध करने वाली अनुमिति में साधक नहीं होता।
इसी प्रकार यदि जीव का लक्षण अमूर्तत्व माना जावे, तो ऐसी अनुमिति होगी कि 'जीव: अजीवाद् भिन्न: अमूर्त्तत्वात्' अर्थात् जीव अजीव से भिन्न है क्योंकि अमर्तिक है। यहाँ जीव पक्ष है, अजीव से भिन्नपन साध्य है, और अमूर्त्तत्व हेतु है। यह हेतु पक्ष से भिन्न जो विपक्ष आकाशादिक हैं उनमें भी पाया जाता है अतः व्यभिचारी हुआ, क्योंकि जो हेतु पक्ष में भी रहे और विपक्ष में भी रहे वह व्यभिचारी होता है, और व्यभिचारी होने से स्वकीय साध्य में गमक नहीं हो सकता, यह अतिव्याप्ति दोष है।
इसी तरह यदि जीव का लक्षण जडत्व माना जावे तो असंभव दोष होगा, क्योंकि यहाँ पर अनुमान का ऐसा आकार होगा कि 'जीव अजीव से भिन्न है क्योंकि जडत्व से सहित है।' यहाँ पर जीव पक्ष है, अजीव-भिन्नता साध्य है, और जडत्व हेतु है। यह जडत्व हेतु पक्ष में सर्वथा ही नहीं रहता, इससे स्वरूपासिद्ध है।
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