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जीवाजीवाधिकार
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शान्ति कहीं से आती नही है. दुग्ध में मक्खन क्या कहीं से आता है? उसके फोक भाग को निकाल दो, वह वस्तु तो उसमें स्वयं विद्यमान है। व्यर्थ दुःखी होने से कोई तत्त्व निकलने वाला नहीं है।
यहाँ आत्मतत्त्व की उपलब्धि के लिये छह माह तक अभ्यास करने की जो बात कही गई है वह उत्कृष्टता की अपेक्षा से है। वैसे अन्तर्मुहूर्त के अभ्यास से भी उसका विकास हो जाता है। यह आत्मा अनादि काल से परपदार्थों के सहवास से स्वकीय तत्त्व की ओर लक्ष्य नहीं देता, यही उसके आत्मतत्त्व की अनुपलब्धि का कारण है। अत: स्वकीय तत्त्व की ओर लक्ष्य देने का प्रयास करना चाहिये।।४४।।
आगे शिष्य का प्रश्न है कि ये अध्यवसानादि भाव भी तो चेतनानुयायी प्रतिभासमान होते हैं, अतः इन्हें पुद्गल कैसे माना जावे? इसका उत्तर देते हैं
अट्ठविहं पि य कम्मं सव्वं पुग्गलमयं जिणा विंति। जस्स फलं तं वुच्चइ दुक्खं ति विपच्चमाणस्स।।४५।।
अर्थ- आठों प्रकार के सभी कर्म पुद्गलमय हैं ऐसा जिनेन्द्र भगवान् कहते हैं। उदय में आते हुए जिन कर्मों का फल दु:ख है ऐसा कहा जाता है।।
विशेषार्थ- अध्यवसानादिक भावों का जनक जो आठ प्रकार का कर्म है वह सबका सब पुद्गलमय है, ऐसा सकलज्ञ-सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव का कथन है। जब इस कर्म के विपाक का काल आता है तब उससे जो फल प्राप्त होता है वह अनाकुलतालक्षण सुखरूप आत्मस्वभाव से विलक्षण होने के कारण दुःख कहा जाता है। अर्थात् ये कर्म जब विपाक काल में अपना रस देते हैं तब आत्मा दुःख हो जाता है। आकुलतारूप लक्षण से युक्त यह अध्यवसानादिक भाव भी इसी दुःख में गर्भित हैं। इसलिये इनमें चेतना के अन्वय का विभ्रम होने पर भी ये आत्मा के स्वभाव नहीं हैं किन्तु पुद्गलस्वभाव हैं। परमार्थ से आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा है परन्तु अनादि काल से इसके कर्मों का सम्बन्ध चल रहा है। उन कर्मों का उदय होने पर नाना प्रकार के आकुलतामय परिणाम द्वारा दुःखी हो जाता है। इसीसे ये जो अध्यवसानादिक भाव हैं वे सब दुःखमय हैं। यद्यपि इनमें चेतनपन का विभ्रम होता है तो भी तत्त्वदृष्टि से ये चेतन नहीं हैं, कर्मजन्य हैं। अतएव निमित्त की मुख्यता से पुद्गल हैं।।४५।। ___ अब यहाँ पर यह आशङ्का होती है, यदि ये अध्यवसानादिक भाव पुद्गल के हैं तो सर्वज्ञ के आगम में इन्हें जीव-भाव कैसे कहा? इसके उत्तर में आचार्य
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