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जीवाजीवाधिकार
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चित्सामान्य में चैतन्य की सब व्यक्तियाँ अन्तर्भूत हो जाती हैं इसलिये भी अव्यक्त है। क्षणिकव्यक्तिमात्र के न होने से भी अव्यक्त है। व्यक्त और अव्यक्त ये दोनों भाव मिश्ररूप से यद्यपि इसमें भासमान होते हैं तो भी केवल व्यक्त भाव का स्पर्श नहीं करता है इस कारण भी अव्यक्त है। निश्चय से आत्मा स्वयमेव बाह्य और आभ्यन्तर स्पष्ट रूप से प्रतिभासमान होने पर भी व्यक्तरूप को स्पर्श नहीं करता, इससे भी अव्यक्त है। इस तरह छह हेतुओं से आत्मा को अव्यक्त कहा।
इस प्रकार रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द, संस्थान तथ व्यक्त स्वरूप के अभाव होने पर भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के बल से अपने आप प्रत्यक्ष का विषय होने से केवल अनुमान का गोचर भी नहीं, इससे आत्मा अलिङ्गग्रहण कहा जाता है अर्थात् आत्मा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का विषय है तब उसका लिङ्ग द्वारा अनुमान करना व्यर्थ है।
इस तरह परापोहन अर्थात् परद्रव्य की व्यावृत्तिपूर्वक जीवद्रव्य का वर्णन कर अब स्वरूपोपादान अर्थात् स्वकीयगुणग्रहणपूर्वक जीवद्रव्य का वर्णन करते हैं
वह जीवद्रव्य चेतनागुण से सदा अन्तरङ्ग में प्रकाशमान है, इससे चेतनागुण वाला है। वह चेतनागुण सम्पूर्ण एकान्तवादियों की समस्त विप्रतिपत्तियों-विरोधों का निराकरण करनेवाला है, उसने अपना सर्वस्व भेदज्ञानियों को सौंप दिया है, सम्पूर्ण लोकालोक को ग्रासीभूत कर अर्थात् अपने ज्ञान का विषय बनाकर बहुत भारी तृप्ति के भार से मन्थर हुए की तरह वह अपने स्वरूप से किञ्चिन्मात्र भी चलायमान नहीं होता तथा अन्य द्रव्य से असाधारण है, अर्थात् आत्मा के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों से इसका अस्तित्व नहीं, अत: जीव का स्वभावभूत होकर स्वयं अनुभव में आ रहा है, ऐसे चेतनागुण के द्वारा ही आत्मा का अस्तित्व है। अरस-अरूपत्व आदि धर्म तो जीव के सिवाय धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य में भी विद्यमान हैं, अत: उनके द्वारा पुद्गलद्रव्य से व्यावृत्ति होने पर भी अन्य अजीव द्रव्यों से व्यावृत्ति न होने से जीव का अस्तित्व सिद्ध नहीं किया जा सकता। जीव का अस्तित्व तो एक चेतनागुण के द्वारा ही होता है। इस तरह चेतनागुण से युक्त, निर्मल प्रकाश का धारक, एक टङ्कोत्कीर्ण भगवान् आत्मा ज्योति:स्वरूप विराजमान है।।४९।। यही भाव श्री अमृतचन्द्र स्वामी कलशा के द्वारा प्रकट करते हैं
मालिनीछन्द सकलमपि विहायाह्नाय चिच्छक्तिरिक्तं
स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम् ।
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