________________
४०
समयसार
का पात्र होता है। सो यदि बलपूर्वक मोह का नाशकर अतीत, अनागत और वर्तमान कालीन बन्ध का नाशकर अन्तरङ्ग में उसे देखने का अभ्यास करे तो वहाँआत्मारूपी देव स्वयं शाश्वत विद्यमान है ही । शुद्धनय का विषयभूत जो आत्मा की अनुभूति है, वही ज्ञान की अनुभूति है, इस निश्चय से जानकर आत्मा में आत्मा का निवेश कर सब ओर से एक विज्ञानघन आत्मा है, ऐसा देखना चाहिये । परमार्थ से संसार में जितने द्रव्य हैं वे सब अपने अस्तित्वगुण से भिन्न-भिन्न हैं, किसी द्रव्य का किसी द्रव्य के साथ एकीभाव नहीं होता। विजातीय द्रव्यों की कथा ही क्या करना है जो सजातीय एकलक्षण वाले पुद्गल परमाणु हैं उनका स्निग्ध- रूक्षगुणों के द्वारा बन्ध होकर भी तादात्म्य नहीं होता । वस्तु स्थिति ही ऐसी है, इस व्यवस्था का कोई भी अपलाप नहीं कर सकता, क्योंकि यह अनादि अनन्त है ।। १४ ।।
आगे शुद्धtय के विषयभूत आत्मा को जो जानता है वह समस्त जिनशासन को जानता है, यह कहते हैं
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्ध-पुट्ठे अणण्णमविसेसं । 'अपदेससुत्तमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं । । १५ । ।
अर्थ- जो जीव आत्मा को अबद्ध-अस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष तथा उपलक्षण से नियत और असंयुक्त देखता है वह द्रव्य भावश्रुतरूप समस्त जिनागम के रहस्य को जानता है।
विशेषार्थ - जो अबद्ध-अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त ऐसे पाँच भावरूप आत्मा की अनुभूति है वह सम्पूर्ण जिनशासन की अनुभूति है, क्योंकि श्रुतज्ञान स्वयं आत्मा है। इससे यह निष्कर्ष निकला कि जो ज्ञान की अनुभूति है वही आत्मा की अनुभूति है । वस्तु की मर्यादा तो यह है फिर भी जो अज्ञानी हैं और परज्ञेयों में लुब्ध हैं वे सामान्यरूप से प्रकट तथा विशेषरूप से अप्रकट अनुभव में आनेवाले ज्ञान के स्वाद से वञ्चित रहते हैं अर्थात् ऐसा ज्ञान उन्हें रुचिकर नहीं होता, यही दिखाते हैं
जैसा नाना प्रकार के व्यञ्जनों के साथ लवण का सम्बन्ध होने से लवण का सामान्य स्वाद तिरोहित हो जाता है । उस समय जो व्यञ्जन के लोभी पुरुष हैं वे शुद्ध लवण के स्वाद से वञ्चित रहते हैं, विशिष्ट स्वाद का अनुभव करते हैं। कोई
१.
अपदेशसूत्रमध्यम्-अपदिश्यतेऽर्थी येन स भवत्यपदेश: शब्दो द्रव्यश्रुतमिति यावत् सूत्रं परिच्छित्तिरूपं भावश्रुतं ज्ञानसमय इति तेन शब्दसमयेन वाच्यं ज्ञानसमयेन परिच्छेद्यमपदेशसूत्रमध्यं भण्यते इति । ता०वृ० ।
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org