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समयसार
यहाँ दर्पण का उल्लेख केवल 'उसमें प्रतिभासित होते हैं' इस अंश को लेकर ही है, अन्यथा वह तो जड़ है, उसमें मोह का सद्भाव ही नहीं है। किन्तु आत्मा अनादिकाल से मोही हो रहा है। परपदार्थ में जो मोह है उसका हेतु अनादि से आत्मा में लगा हुआ मिथ्याभाव है।
आगे अज्ञानी आत्मा किस प्रकार जाना जाता है, यही दिखाते हैंअहमेदं एदमहं अहमेदस्सेव होमि मम एदं । अण्णं जं परदव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सं वा ।।२०।। आसि मम पुव्वमेदं एदस्स अहं पि आसि पुव्वं हि । होहिदि पुणो वि मझं एयस्स अहं पि होस्सामि ।।२१।। एयं तु असंभूदं आद-वियप्पं करेदि संमूढो । भूदत्थं जाणंतो ण करेदि दु तं असंमूढो ।।२२।।
(त्रिकलम्) अर्थ- 'मैं यह हूँ' अर्थात् मैं परद्रव्यरूप हूँ, 'यह मैं हूँ' अर्थात् परद्रव्य मुझरूप है, 'मैं इसका हूँ' अर्थात् परद्रव्य मेरा स्वामी है, 'यह मेरा है' अर्थात् मैं परद्रव्य का स्वामी हूँ, 'यह पहले मेरा था', 'मैं भी पहले इसका था', 'यह फिर भी मेरा होगा' और 'मैं फिर इसका होऊँगा' इन मिथ्या आत्म-विकल्पों को अज्ञानी जीव करता है और ज्ञानी जीव यथार्थ वस्तुस्वरूप को जानता हुआ उन विकल्पों को नहीं करता है।
विशेषार्थ- इस लोक में यह देखा जाता है कि जिनकी बुद्धि भ्रान्त रहती है वे ही परवस्तु को अपना मानने की चेष्टा करते हैं और जो विवेकी हैं वे कदापि परवस्तु को नहीं अपनाते। यही दृष्टान्त द्वारा बताते हैं
जैसेअग्नि और ईधन को एक स्थान में देख कोई पुरुष यह कल्पना करता है कि जो अग्नि है सो ईधन है अथवा ईधन है सो अग्नि है, अथवा अग्नि का ईंधन है या ईंधन का अग्नि है, अथवा अतीतकाल में भी अग्नि का ईंधन था अथवा ईंधन का अग्नि था। जैसा अतीतकाल में विकल्प करता है वैसा ही भविष्यकाल में भी यह विकल्प करता है कि अग्नि का ईंधन होगा, ईंधन का अग्नि होगा, इस प्रकार ईंधन में असद्भूत अग्नि की सत्ता और अग्नि में असद्भूत ईंधन की सत्ता मानने वाला अज्ञानी है। ऐसा सम्यग्ज्ञानी जीवों के ज्ञान में नहीं देखा जाता है। इसी तरह आत्मा और पर को एक समझने वाला अज्ञानी जीव भी कल्पना करता है कि मैं यह हूँ, और यह जो परपदार्थ है सो मुझरूप है, अथवा मेरे यह पदार्थ
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