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समयसार
सम्यग्दृष्टि बनता है। तदनन्तर चारित्रमोह के क्षयोपशम से मुनिव्रत अङ्गीकार कर श्रेणी के सम्मुख होता क्रम - क्रम से चारित्रमोह की प्रकृतियों का क्षय करता हुआ दशम गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ का भी अन्त करता है तथा क्षीणमोह दशा को प्राप्त हो अन्तर्मुहूर्त में ज्ञानावरणादि कर्मों का निर्मूलन कर केवलज्ञान का पात्र हो जाता है। पश्चात् आयु के अवसान में मोक्ष का पात्र होता है।
आगे अप्रतिबुद्ध जीव फिर कहता है कि शरीर ही आत्मा है क्योंकि शरीर से भिन्न आत्मा दृष्टिगोचर नहीं होता, यही दिखाते हैं
जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरिय-संधुदी चेव ।
सव्वा वि हवदि मिच्छा तेण दु आदा हवदि देहो ।। २६ ।। अर्थ- यदि शरीर जीव नहीं है तो तीर्थकरों की आचार्यों द्वारा की गयी यह जो स्तुति है वह सब मिथ्या हो जावे, इससे शरीर ही आत्मा है।
विशेषार्थ - शरीर से भिन्न आत्मा नहीं है, इस पक्ष का प्रतिपादन करता हुआ अप्रतिबुद्ध - अज्ञानी जीव कहता है कि यदि पुद्गलद्रव्यात्मक शरीर जीव नहीं है तो तीर्थंकर भगवान् की आचार्यों ने जो यह स्तुति की है वह असंगत हो जावेगी।।२६।।
स्तुति में आचार्यों ने कहा है
शार्दूलविक्रीडित छन्द
कान्त्यैव स्नपयन्ति ये दशदिशो धाम्ना निरुन्धन्ति ये धामोद्दाममहस्वितां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये । दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरन्तोऽमृतं
वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः
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सूरयः ।। २४ ।। अर्थ- जो कान्ति के द्वारा मानो दशों दिशाओं को स्नपन करा रहे हैं, जो अपने तेज के द्वारा उत्कट तेजस्वी सूर्य आदि के भी तेज को रोक देते हैं, जो अपने सुन्दर रूप के द्वारा निखिल प्राणियों के मन को अपहृत कर लेते हैं, जो दिव्यध्वनि के द्वारा कानों में साक्षात् अमृतवर्षा करते हुए सुख उपजाते हैं तथा जो एक हजार आठ लक्षणों के धारक हैं वे तीर्थंकर आचार्य वन्दना करने योग्य हैं।
भावार्थ - इस स्तुति में जिन कान्ति, तेज, रूप, दिव्यध्वनि तथा अष्टोत्तर सहस्र लक्षणों की महिमा गाई गई है वे सब शरीर के ही अङ्ग हैं। अतः शरीर से भिन्न आत्मा नहीं है, ऐसा अप्रतिबुद्ध शिष्य ने अपना पूर्वपक्ष रखा है ।। २४ ।।
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