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जीवाजीवाधिकार
ऐसा होने से जिस प्रकार आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादिकाल से है उसी प्रकार नोकर्मरूप शरीर का भी सम्बन्ध अनादि से है। उसी शरीर की अवयवभूत इन्द्रियाँ हैं। इन्द्रियाँ दो प्रकार की हैं—एक द्रव्येन्द्रिय, जो कि पुद्गल की रचनाविशेष हैं, और दूसरी भावेन्द्रिय, जो कि ज्ञानविशेषरूप हैं। इन्द्रियों के विषय रूपादिक हैं। इन तीनों को अर्थात् द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय तथा इन इन्द्रियों के विषय रूपादिक पदार्थों को जो मुनि विजित कर लेता है अर्थात् इनसे भिन्न अपने आत्मा का अनुभव करता है वह ही जितेन्द्रिय है।
___ उनके जीतने का प्रकार इस रीति से है-ये जो द्रव्येन्द्रियाँ हैं सो. अनादि बन्धपर्याय की आधीनता द्वारा समस्त स्व और पर के विभाग को नष्ट करनेवाली हैं अर्थात् अनादिकाल से आत्मा के साथ जो पुद्गल का सम्बन्ध हो रहा है उसके वश से इनमें आत्मा और पर का विभाग ज्ञान नहीं हो पाता है तथा ये शरीरपरिणाम को प्राप्त करनेवाली हैं अर्थात् शरीर के साथ एकमेक हो रही हैं। निर्मल भेदज्ञान के अभ्यास की कुशलता से जायमान तथा अन्तरङ्ग में देदीप्यमान अति सूक्ष्म चित्स्वभाव के आलम्बन से बल से इन द्रव्येन्द्रियों से भिन्न जो निज आत्मा को जानना है यही उनका जीतना है। ___ यद्यपि विषय अखण्ड है और आत्मा का स्वरूप भी अखण्ड है परन्तु कर्ममलीमस आत्मा इन्हें युगपत् स्वतंत्ररूप से नहीं जान सकता है। अत: भावेन्द्रियों के द्वारा खण्डश: पदार्थों को जानता है अर्थात् भावेन्द्रियाँ अपने-अपने प्रतिविशिष्ट विषय को खण्डश: आकर्षण करनेवाली हैं। जैसे पुद्गल तो स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण वाला है परन्तु उसे चक्षुरिन्द्रिय केवल रूपमुख से ग्रहण करती है, घ्राणेन्द्रिय गन्धमुख से ग्रहण करती है, रसनेन्द्रिय रसमुख से ग्रहण करती है और स्पर्शनेद्रिय स्पर्शमुख से ग्रहण करती है। स्पर्श, रस, गन्ध तथा रूप के समुदायरूप पुद्गल को समग्र रूप से एक साथ ग्रहण करने की शक्ति भावेन्द्रियों में नहीं है। इन भावेन्द्रियों से प्रतीयमान अखण्ड एक चैतन्यशक्ति के द्वारा अपने आत्मा का जो जानना है वही इन भावेन्द्रियों का जीतना है।
इसी प्रकार भावेन्द्रियों के द्वारा ग्रहण में आने वाले जो स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण हैं वे ग्राह्यग्राहक लक्षण सम्बन्ध प्रत्यासत्ति के वश से ऐसे प्रतीत होते हैं मानों ये ज्ञान ही हैं अर्थात् ये स्पर्शादि ज्ञान में आने से ज्ञान के समान भासमान होते हैं, ज्ञानस्वरूप नहीं हैं, क्योंकि ज्ञान भिन्न पदार्थ है और ज्ञेय भिन्न पदार्थ हैं। उन्हें चेतनाशक्ति के स्वयं अनुभव में आनेवाले असंगपन से आत्मा से पृथक् अनुभव करना चाहिए अर्थात् चेतनाशक्ति का जो विकास है उसमें चेतना का ही परिणमन भासमान हो रहा है, अपने में प्रतिफलित ज्ञेयों से चेतना सदा असंगत—निर्लिप्त ही रहती है। ऐसी चेतनाशक्ति की महिमा से स्पर्शादि से भिन्न अपने आत्मस्वरूप
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