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१८
समयसार
बन्ध है वह इस प्रकार का नहीं है । वहाँ केवल दोनों द्रव्य अपने-अपने परिणमन को छोड़ भिन्न-भिन्न रूप से परिणमन को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् जीव के रागादिभावों का निमित्त पाकर पुद्गल वर्गणाएँ ज्ञानावरणादिरूप परिणमन को प्राप्त हो जाती हैं तथा मोहादि कर्मों के उदय को पाकर जीव रागादिभाव को प्राप्त हो जाता है।
यह कथा दो द्रव्यों की है, किन्तु एक ही द्रव्य में जो गुण हैं अर्थात् जिनका द्रव्य के साथ तादात्म्य सम्बन्ध हो रहा है वे गुण भी परस्पर में एक नहीं हो जाते हैं। इसी को व्यक्त करने के लिये द्रव्यों में अनन्तानन्त अगुरुलघु गुण माने गये हैं। जैसे पुद्गल में जो स्पर्श - - रस- गन्ध-रूप गुण हैं वे सब नाना हैं क्योंकि भिन्न-भिन्न इन्द्रियों के विषय हैं। उनमें जो एकत्वव्यवहार है वह एक सत्ता होने से है अर्थात् पुद्गलद्रव्य से उनकी पृथक् सत्ता नहीं है । इसी तरह आत्मा में जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुण हैं वे अपने स्वरूप से भिन्न-भिन्न हैं किन्तु आत्मा से भिन्न उनकी सत्ता अन्यत्र नहीं पाई जाती, इसीसे अभेदव्यवहार होता है । इसी अभिप्रात्र को लेकर स्वामी का कहना है कि अभेदद्दष्टि में ज्ञानदर्शनादि कुछ नहीं हैं। इसका यह अभिप्राय है कि वह नय, भेद को गौणकर अभेद को ही विषय करता है। इसका यह तात्पर्य नहीं कि आत्मा में दर्शन-ज्ञान - चारित्र नहीं हैं। केवल शिष्य के बुद्धिवैशद्य के अर्थ आचार्यों का प्रयास है ।
अनन्तधर्मात्मक एक धर्मी के समझने में अपटु जो शिष्य है उसे समझाने के लिये उस अनन्त धर्मात्मक धर्मी को जाननेवाले आचार्य कितने ही प्रसिद्ध गुणों को लेकर कहते हैं कि ज्ञानी के दर्शन भी है, ज्ञान भी है, चारित्र भी है परन्तु परमार्थ से अनन्तपर्याय वाले द्रव्य के अखण्ड स्वभाव का जो अनुभव करनेवाले हैं उनकी दृष्टि से ज्ञानी के न दर्शन है, न ज्ञान है और न चारित्र है, केवल एक ज्ञायक शुद्धभाव है। जैसे लोक में किसी ने अपने भृत्य से कहा कि सुवर्ण लाओ। भृत्य बाजार में गया और सामान्य सुवर्ण की किसी पर्याय में सुवर्ण ले आया, क्योंकि सामान्य सुवर्ण में सुवर्ण की मुख्यता रहती है, पर्यायों की गौणता है। इसी तरह जब जीव का सामान्यरूप से कथन करते हैं तब उसमें ज्ञायकभाव की मुख्यता रहती है, न प्रमत्त की मुख्यता रहती है और न अप्रमत्तकी, यही आत्मा को शुद्ध कहने का तात्पर्य है ।।७।।
आगे, यदि ऐसा है तो परमार्थ से उसी का कथन करना चाहिये, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि ठीक है परन्तु वे जब सामान्य से इसे नहीं समझते हैं तब विशेषरूप से कहना उचित है, इसी अभिप्राय को लेकर व्यवहारनय की उपयोगिता दिखाते हैं
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