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जीवाजीवाधिकार
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कर्मों के निरोध का कारण भी है। इसी तरह निर्जर्य और निर्जरक ये दोनों भाव निर्जरा हैं अर्थात् निर्जरारूप जो भाव है वह स्वयं निर्जरणस्वरूप है और निर्जराका करनेवाला भी है। इसी तरह बन्ध्य और बन्धक ये दोनों ही बन्ध हैं अर्थात् जो बन्धभाव है वह स्वयं बन्धने योग्य है और बन्धन का करने वाला भी है। इसी प्रकार मोच्य और मोचक ये दोनों ही मोक्ष हैं अर्थात् जो मोक्षभाव है वह मोक्ष होने योग्य और मोक्ष का करनेवाला भी है।
एक ही पदार्थ में नवतत्त्व नहीं बन सकते। आत्मा अपने आप आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पापरूप परिणमन को प्राप्त नहीं हो सकता, अत: जीव और अजीव इन दोनों के मिलने से इन आस्रवादि पदार्थों का उत्पाद होता है ऐसा माना गया है। जीव नामक पदार्थ में अनेक शक्तियाँ हैं। उनमें एक विभावशक्ति भी है और योगशक्ति भी है। ये शक्तियाँ निमित्त पाकर जीव में प्रदेश-चञ्चलता और कलुषता को उत्पन्न करती हैं। जिसके द्वारा आत्मा में आस्रव और बन्ध होता है। तथा जब तीव्र कषाय होती है तब पाप के कारण अशुभ और जब मन्द कषाय होती है तब पुण्य के कारण शुभ परिणाम होते है जो कि आत्मा में पाप और पुण्य की परिणति करते हैं। तथा जब आत्मा बन्ध-फल का अनुभव करता है तब वह कर्म रस देकर खिर जाता है उसे निर्जरा कहते हैं। ऐसी निर्जरा सम्यग्दर्शन के पहले सब जीवों के होती है परन्तु उसका मोक्षमार्ग में कोई उपयोग नहीं होता। जब आत्मा में परिणामों की निर्मलता होने से विपरीत अभिप्राय निकल जाता है और सम्यग्दर्शन का लाभ हो जाता है तब संवरपूर्वक निर्जरा होने लगती है। और जब गुणस्थान-परिपाटी से क्रम-क्रम से परिणमों की निर्मलता बढ़ने लगती है तब उसी क्रम से संवर बढ़ने लगता है। इस तरह ग्यारह, बारह और तेरहवें गुणस्थान में केवल सातावेदनीय का आस्रव रह जाता है, शेष प्रकृतियों का संवर हो जाता है
और अन्त में चतुर्दश गुणस्थान में उसका भी संवर हो जाता है। अघातिया कर्मों की जो पचासी प्रकृतियाँ सत्ता में रह जाती हैं उनकी भी उपान्त्य और अन्त्य समय में निर्जरा कर आत्मा मोक्ष का लाभ करता है। इस तरह ये नव तत्त्व पदार्थद्वयजीव-अजीव के सम्बन्ध से होते हैं। बाह्य दृष्टि से जीव और पुद्गल की जो अनादि काल से बन्धपर्याय प्रवाहरूप से चली आ रही है यदि उसकी अपेक्षा से विचार किया जावे तो एकपन से अनुभूयमान होनेवाले ये नव तत्त्व सत्यार्थ हैं और मिश्रितावस्था को छोड़कर केवल जीवद्रव्य के स्वभाव की अपेक्षा से विचार किया जावे तो अभूतार्थ हैं। केवल न जीवद्रव्य नवरूप हो सकता है और न केवल अजीव (पुद्गल) द्रव्य ही नवरूप हो सकता है। जैसे नमक, मिर्च, खटाई, यदि इनको मिलाया जावे तो नमक-मिर्च, नमक-खटाई, मिर्च-खटाई और तोनों को मिलाया जावे तो
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