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समयसार
आस्रवों को जानने पर उनसे निवृत्ति होती है
ज्ञानी आत्मा का लक्षण
ज्ञानी जीव पुद्गलकर्म को जानता हुआ भी उनरूप नहीं परिणमता है
के
स्वकीय परिणाम को जानने वाले जीव का पुद्गल साथ कर्तृ-कर्मभाव क्या हो सकता है? इसका उत्तर पुद्गलकर्म के फल को जानने वाले जीव का पुद्गल के साथ कर्तृ-कर्मभाव क्या हो सकता है? इसका उत्तर पुद्गलद्रव्य भी परद्रव्यपर्यायों को नहीं ग्रहण करता है जीव और पुद्गल परिणाम में निमित्त नैमित्तिकभाव होने पर भी कर्तृकर्मभाव नहीं है
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निश्चयनय से आत्मा, आत्मा का ही कर्ता और भोक्ता है व्यवहारनय का पक्ष दिखाकर उसको दूषित करते हैं द्विक्रियावादी मिथ्यादृष्टि है
मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति तथा योग आदि जीव और अजीवरूप हैं
मिथ्यात्व आदि भाव चैतन्यपरिणाम के विकार कैसे हैं? आत्मा में मिथ्यात्व अज्ञान और अविरति भाव का कर्तृत्व आत्मा विकारी भावों का कर्ता है और पुद्गलकर्मों का कर्ता है
अज्ञानमय जीव कर्मों का कर्ता है
ज्ञानमय जीव कर्मों का कर्ता नहीं है
अज्ञान से कर्म किस प्रकार होते हैं? इसका कथन ज्ञेय-ज्ञायक भावविषयक भेद के अज्ञान से कर्म का
प्रादुर्भाव कैसे होता है?
अज्ञान से आत्मा कर्ता है, इसका उपसंहार
सर्वकर्मों के कर्तृत्व को कौन छोड़ता है ?
व्यवहार से घटपटादि के कर्तृत्व का निषेध निमित्त नैमित्तिकभाव से भी आत्मा घटपटादि का कर्ता
नहीं है
ज्ञानी जीव ज्ञान का ही कर्ता है।
अज्ञानी भी परभाव का कर्ता नहीं है परभाव, पर के द्वारा हो भी नहीं सकता
आत्मा पुद्गलकर्मों का कर्ता नहीं है जीव उपचारमात्र से कर्मों का कर्ता है
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