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है-माव इतना ही प्रयोजन है। यह अभिप्राय नहीं है कि व्यवहार नय और उसका विषय संसारी जीव असत्यार्य है-उनका अस्तित्व ही नहीं है । यदि इसे सर्वथा असत्यार्य माना जाएगा तो संसार का असत्य होगा और यदि संसार असत्य है तो मोक्ष के उपदेश की क्या आवश्यकता है और वह किसके लिए है ?
पंथकार को इस नय विवेचन दृष्टि को पहचान कर ही पंथ का मर्म जाना जा सकता है, अन्यथा नहीं। इसी दृष्टि से पंथकार ने भूतार्थ (निश्चय) नय से जीवादि नव पदार्थों का विवेचन किया है और यह बताया है कि नवपदार्थों का यथार्थ स्वरूप मानकर उनमें जीच तत्त्व का यथार्थ स्वरूप क्या है, उसे पहिचानकर उस निज आत्मा की श्रद्धा करो, यही सम्यग्दर्शन है । यदि व्यवहार पक्ष से प्रतिपादित जीवादि के स्वरूप को यथार्थ (शुब) पदार्थ मान लोगे तो अशुद्धता ही हाथ लगेगी । अतः ए व्यवहारी जनो ! शुद्ध निश्चय नय से वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानकर उसे प्राप्त करने में अप्रसर होमो। भेव विज्ञान के बल से पर से भिन्न विकाल शुद्ध स्वरूप निजात्मा को पहिचानो।
जब आत्मा निज स्वभाव से शुख है, तब मुमन को यह प्रश्न सहज ही हो सकता है कि मेरी वर्तमान अशुद्धावस्था क्यों हुई? और बह शुख कैसे होगी? प्रकारान्तरसे यह प्रश्न इस रूप से भी कहा जा सकता है कि मेरी दुलमय संसारावस्था क्यों है ? और वह कैसे मिटे? ___ इस प्रश्न का समाधान करने के लिए कोई ईश्वर को कर्ता मानते हैं। कोई पौनगलिक जड़ कर्म को कर्ता कहते हैं। किंतु परके कर्तृत्वका और भोक्त्तव का अभाव है जिसका प्रतिपादन द्वितीयाधिकार में किया गया है, जिसका नाम है
कर्ता-कर्माधिकार इस अधिकार में आचार्य श्री ने यह स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि प्रत्येक द्रव्य अपने अपने गुण सहित अपनी अपनी पर्यायरूप स्वयं परिणमन करता है। परिणमन करना द्रव्य का स्वभाव है । कोई एक द्रव्य दूसरे अव्य के परिणमन का न कर्ता है और न उसका भोक्ता है । यह जैन धर्म का मूल सिद्धांत है।
इसके अनुसार आत्माव्य भी अपने परिगमन का स्वयं कर्ता है, स्वयं भोक्ता है।