Book Title: Samaysar Vaibhav
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Jain Dharm Prakashan Karyalaya

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Page 15
________________ इसे ही समयसार में निजके स्वरूप में अभिन्न तथा अपने से पृथक स्वरूप वाले पुद्गलावि से तथा अन्य जीवावि संपूर्ण पर द्रव्यो से भिन्न आत्मा को ही "एकत्व विभक्त" आत्मा कहा गया है। किसी भी पदार्थ की शुद्धता स्वास्तित्व (एकत्व) और पर के नास्तित्व (विभक्तत्व) के बिना नहीं होती। यही जैनधर्म के अनेकांत का स्वरूप है । अनेकान्त शासन (सिद्धांत) की मुद्रा (छाप) संसार के अणु-अणु पर है। किन्तु यह ग्रंथ 'समयसार' आत्म कल्याण के ध्येय से ही मुमुक्षुओं के लिए लिखा गया है । अतः इसमें "शुद्ध-आत्मा" का ही विवेचन है । इस शुढात्मा का ही दूसरा नाम 'समयसार' है। निज शुद्धात्म स्वरूप को आगम बल से या गुरूपदेश से जानकर उसको दृढ़ प्रतीति तया उसी में रमण करना ही मोक्ष का मार्ग है। अनादिकाल से कर्म संयोग से तथा तनिमित्त जन्य अपनी मलिनता से यह आत्मा अब हो रहा है। अपनी इस अशुद्धता का इसे भान नहीं है। मोह (मिथ्यात्व) कर्मोदय की स्थिति में इसका ज्ञान भी विकृत होगया है, फलतः इसे अपनी यथार्थ स्थिति को न जानकारी है न उसे जानने की रुचि है। पर में ही मगन हो संयोग वियोग को साथ लेकर आता है। जब यह पर संयोग में अपना लाभ मान कर सुखी होता है, तब उसके वियोग में, जो अवश्यंभावी है, दुखी होना मी इसके लिए अनिवार्य है। यदि इसे पर के परत्व का और स्व के शुद्ध स्वरूप का भान एकबार हो जाय तो इसके सुख का मार्ग खुलजाय । इसी उद्देश्य से आप्त पुरुषों ने आत्मशुद्धि के मार्ग स्वरूप सम्यग्दर्शन शान चरित्र रूप मोक्ष मार्ग का प्रतिपादन किया है। भगवान् उमास्वामी ने सप्ततत्व के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है। इस ग्रंथ में भी आचार्य ने भतार्थनय से सप्ततत्व को जानने तथा श्रद्धान करने की बात लिखी है । तथापि उस तत्वविवेचन के मूल में अभिप्राय एकमात्र यही है कि यह जीव उन तत्वो को, जो पर हैं, पर रूप में जानकर उनसे आत्मा को भिन्नता को पहिचाने, और निज शुढात्मा में ही रमण करे। यही मोक्ष मार्ग है। पंथकार ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस पंथ को नप अध्यायों में विभक्त किया है। 1. जीवानीवाधिकार। 2. ककर्माधिकार। 3. पुण्यापाधिकार ।

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