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4. आसव अधिकार । 5. संबर अधिकार । 6. निर्जराधिकार । 7.बंध अधिकार। मोक्ष अधिकार । 9. सर्व विशुद्धि अधिकार । ( 10. स्यावाद अधिकार ) इनका संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जाता है।
जीवाजीवाधिकार
इसमें जीव के एकत्व की अर्थात् 'स्वसमय' को कथा है, तथा बंध की कथा अर्थात् ‘पर समय' की भी कथा है । स्वसमय कथा आनन्ददायिनी है और परसमय की कथा विसंवादिनी है। जीव तो ज्ञायक स्वभावो स्वयं अनन्त चैतन्य का ज है । स्वरूप से त्रिकाल शुद्ध है । ज्ञानी के सम्यग्दर्शन शान चारित्र है, ऐसा कथन (भेव रूप कपन) व्यवहार नय से किया जाता है । परमार्थनय (निश्वयनय ) से देखा जाय तो आत्मा अखण्ड है, ज्ञान दर्शन चारित्र से अभिन्न है, उसमें वित्व-सीमपना नहीं है । भेव कथन ही व्यवहार कथन है तथा अभेव स्वरूप वस्तु का अलंड एकाकार सा कि वह है-वैसा वर्णन करना निश्चय परक कथन है। वस्तु का स्वरूप यदि जानना है तो उसे भेद २ कर ही जाना जा सकेगा। इस अपेक्षा से व्यवहार नय उपयोगी है, उसके बिना निश्चयात्मक अखंड, एक वस्तु का स्वरूप नहीं जाना जा सकता, इसीलिए व्यवहार मय भी प्रयोजनीय है, ऐसा कहा गया है। इन दोनों को भेवनय और अभेदनय-ऐसे दो नाम देना ही ज्यादा सुसंगत होना ।
भेद प्रतिपादकता भी दृष्टि से जहाँ वस्तुगत भेद प्रतिपादित हो वहां वह नय वस्तु के निश्चयात्मक स्वरूप का ही निर्देश करता है, अतएव उसे "स्वाभितो निश्चयः" इस निश्चय के लक्षणानुसार निश्चयनम में ही शामिल कर सकते हैं। तथा “पराश्रितो व्यवहारः" इस व्यवहार के लक्षण के अनुसार परतव्य सापेक्ष आत्मा के वर्णन को ही व्यवहार नय कहेंगे । संसारी आत्मा को, उसको उस अशुद्धावस्था में भी "मात्मा" कहना, यह पराश्रित व्यवहारनय का कमन है । इस नय का भी प्रयोजन पर के परत्व का प्रतिपादन ही है, अतः शुद्ध पदार्थ के बोष कराने के लिए इसका भी प्रयोजन है।
अशुखात्मा के प्रतिपादक व्यवहार नय को अभूतार्थ (अशुद्धार्थ) का प्रतिपादक होने से अभूतार्थ कहा है, और शुद्वात्मा (भूतार्थ) के प्रतिपावकमय निश्चयनय को भूतार्थ कहा गया है। संसारी जीव की वर्तमान रागादिरूप अवस्था आत्मा का शुद्ध स्वरूप नहीं