Book Title: Samadhino Pranvayu
Author(s): Vijayajitshekharsuri, Sanyambodhivijay
Publisher: Jainam Parivar

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Page 15
________________ परमाणुरुप प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्त है, काल की अपेक्षा से संख्येय है, जिन आकाशप्रदेशो में रहा है उस क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्येय है और वर्णादिसे अर्थात् भाव से अनन्त भी है। एकही पदार्थ स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से सत् है और परद्रव्य-क्षेत्र-काल भाव से असत् भी है। जैसे घट स्वरुप से सत् है और पररुप पटकी अपेक्षा से असत् है। _ एक ही पदार्थ द्रव्यरुप से नित्य है, जैसे कोई भी जीव जीवत्व की अपेक्षा से नित्य है। फिर भी पर्याय अवस्था-Form बदलते रहते हैं। मनुष्य आयुः पूर्ण होते ही मनुष्यत्व नष्ट होता है और देवत्वादि अन्यतम पर्याय अवस्था उत्पन्न होती है। अतः द्रव्य से नित्य होने पर भी पर्याय की अपेक्षा अनित्य है। सारांश सभी पदार्थ यावत् परमाणु से लगाकर आकाश तक नित्यानित्य है । यही अनेकांत है। . सारांश प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्मात्मक है। तो कोई एक धर्म को मुख्य करके निरुपण करना हो तब शेष धर्मों की संभावना भी द्योतित होनी चाहिए। यह संभावना अनेकान्तसूचक 'स्यात्' पद से ही द्योतित होती है। अत एव सिद्ध-हेमव्याकरण के रचयिता आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजी म.सा. ने स्याद्वादात् सिद्धि' प्रथम सूत्र रचा है। इसी आधार पर किसी भी पदार्थ का स्यान्नित्यम्, स्यादनित्यम् , स्यानित्यानित्यम् इत्यादि सप्तभंगी द्वारा निरुपण हो तो वह न्याय्यपूर्ण है। अत एव अनेकान्तदर्शन सर्वव्यापक है और इसीलिए सर्वमान्य होना चाहिए। अब हम अनेकान्तदर्शन से होनेवाले लाभों की ओर नजर करेंगे । किसी की मान्यता कैसी क्यों है ? यह सोचने की विशाल दृष्टि अनेकान्तदर्शन से विकसित होती है । अर्थात् विचारों की उदारता का विकास होता है, समन्वय दृष्टि का उन्मेष होता है किसी के प्रति निबिड राग-द्वेष के परिणाम अटक जाते है। अनेकान्तदर्शन के प्रभाव से भौतिक पदार्थों में क्षणभङ्गुरता की प्रतीति होती है। अत एव अनादिकालीन आसक्ति क्षीणता को पाती है। जीवों के प्रति छाद्मस्थ्य सहज गुण-दोषों का अभिगम रहता है, अतः किसी के प्रति द्वेष भी नहीं रहता है और अन्धा राग भी नहीं। इस अवस्था में उदासीनता की वृद्धि होती है। अत एव संघर्ष स्वतः कम हो जाते है और शान्ति की अनुभूति अखण्ड रहती है। यही मोक्ष का उपाय है । अनेकान्तदर्शी अनादिकाल के राग-द्वेष के परिणामों को क्षीण करके रागद्वेष का संपूर्ण क्षय करता है । उसकी दृष्टि में ही रुप-कद्रूपता, संयोग-वियोग, हर्ष-शोक, लाभ-हानि, सरस-विरस, सुगंध-दुर्गंध, जय-पराजय, सुख-दुःख, यौवन-वार्धक्य, आरोग्य-अनारोग्य, जन्म-मृत्यु आदि द्वन्द्व एक ही सिक्के के दो पहलु है । इस तरह के ये द्वन्द्व पुद्गलों के परिणाम जानकर राग-द्वेष के र परिणाम से रहित उदासीन रहता है और यही उदासीनता मुक्ति की दूती है। फलतः अनेकान्तदर्शन समता द्वारा मुक्ति की प्रापिका है । अतः अनेकान्तदर्शन सभी के लिए उपादेय है 1 किंबहुना ? सिर्फ विषय की झाँकी कराने का प्रयास किया है । संपूर्ण विषय का ज्ञान तो प्रस्तुत ग्रन्थ पढने से ही होगा । म न जैन शासन सेवकआ. विजयकुलचन्द्रसूरि, सुरत, कतारगाम, ज्ञानपंचमी, वि.सं. २०७०

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