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लक्ष्य अवश्य होना चाहिए। कल्पना कीजिए, किसी मैदान में दो फुटबॉल टीमों को भेज दिया जाय और उनसे कहें कि फुटबाल खेलो। वे कहेंगे, ‘कि खेलेंगे तो जरूर पर गोल कहाँ करेंगे?' जब तक गोल पोस्ट न हो, खिलाड़ी खेलना न चाहेंगे, क्योंकि जब तक लक्ष्य ही नहीं है जीतने का और किसी को पराजित करने का, तब तक खेल खेलने का मज़ा ही नहीं है। क्या आप ऐसी ट्रेन में बैठना पसंद करेंगे जिसके आने और जाने के गंतव्य का आपको पता ही न हो।
मैं एक चौराहे पर खड़ा था। तभी एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा, 'यह रास्ता किधर जाता है ?' 'मैं तुम्हें यह बताऊँ कि यह रास्ता किधर जाता है इसके पहले तुम बताओ कि तुम्हें किधर जाना है ?' मैंने कहा। वह सकपकाते हुए बोला, 'मुझे नहीं पता कि मुझे किधर जाना है ?' 'जब तुम्हें यह भी नहीं मालूम कि तुम्हें किधर जाना है तो किसी भी रास्ते से जाओ। क्या फर्क पड़ता है! अरे, जब तुम्हारा कोई लक्ष्य ही नहीं है तो कहाँ पहुँचोगे? सुबह घर से निकलते हो, दिन भर इधर-उधर भटकते हो और शाम को वापस घर पहुँच जाते हो, यही तो लक्ष्यहीन व्यक्ति की दिनचर्या रहती है। ___जब तक जीवन में सार्थक लक्ष्य न होगा तब तक पुरुषार्थ सही पथ पर नियोजित नहीं हो पाएगा। बिना सार्थक लक्ष्य के किया गया तीरसंधान सदा व्यर्थ ही जाता है। हमें भलीभाँति याद है कि जब द्रोणाचार्य अपने सभी शिष्यों को एकत्र करके कहते हैं कि ‘बच्चो, तुम्हारी शिक्षा तो पूर्ण हो चुकी है। आओ, आज तुम्हारी परीक्षा है। देखो, वहाँ स्वागत-द्वार के समीप वृक्ष पर चिड़िया बैठी है। तुम्हें उसका संधान करना है।'
दुर्योधन, भीम, युधिष्ठिर व अन्य सभी छात्र एक-एक कर आते हैं और अपना धनुष उठाते हैं। तभी द्रोणाचार्य पूछते हैं, 'वत्स, तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है?' कोई कहता है, स्वागत-द्वार, कोई वृक्ष, कोई पत्ते कोई कुछ, कोई कुछ अन्य बताते हैं। द्रोणाचार्य सबको परे हटाते जाते हैं। सभी छात्र किनारे कर दिये गये। किसी को भी शर-संधान का मौका न मिला। जब अर्जुन आते हैं तब उनसे भी वही प्रश्न किया जाता है और अर्जुन का उत्तर होता है, 'मुझे केवल
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