Book Title: Sakaratmak Sochie Safalta Paie
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 104
________________ प्रेम : जीवन का पुण्य पथ भी तो तोल ले।' 'मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। मैं भगवान को तोल सकूँ, ऐसा मेरे पास कुछ नहीं है। केवल मेरे कंठ में यह तुलसीदल की माला है', रुक्मिणी ने कातर होकर कहा । लेकिन सत्यभामा ने विपरीत टिप्पणी कर डाली तो रुक्मिणी से न रहा गया। वह खड़ी हुई। पास में ही तुलसी का पौधा था। उस पर से चार पत्तियाँ तोड़ीं, हरेक पर लिखा, 'श्रीकृष्ण शरणं मम' । उन चारों पत्तों से भगवान की शरण स्वीकार करते हुए वह श्रीकृष्ण के पास आई। उनकी परिक्रमा लगाई। उनके चरणों से पत्तों को छुआया, हृदय से लगाया और भक्ति - प्रेम के साथ पलड़े पर रख दिया। आश्चर्य ! श्रीकृष्ण हल्के हो गये, उनका पलड़ा ऊँचा उठ गया। तुलसी के चार पत्ते भारी हो गये । प्रेम, श्रद्धा, भक्ति के चार तुलसी - पत्ते भगवान को झुका देते हैं। तुम कितने भी शक्तिसम्पन्न क्यों न हो, लेकिन किसी के हृदय की भक्ति, श्रद्धा और प्रेम से अधिक शक्तिशाली नहीं हो सकते! भगवान उन्हीं के पास आते हैं जिनके हृदय में प्रेम भरी प्रार्थनाएँ होती हैं। 97 प्रकृति को, भगवान को, सारी मानवता को प्रेम भरे प्रणाम हैं। यह हृदय जिसमें कि वही रहता है, उसका ही नूर बरसता है। हम सब उसी की मूरत हैं। सबसे प्रेम करो। जीवन के कण-कण को आप प्रेम से भर सकते हैं। आपका हर कदम प्रेमपूर्ण हो। मैं समझता हूँ, प्रेम से बढ़कर कोई अन्य प्रार्थना नहीं है, नहीं है, प्रसाद नहीं है। प्रेम ही कभी प्रार्थना हो जाता है, कभी श्रद्धा, प्रसाद और कभी आशीर्वाद हो जाता है। आपके लिए हृदय का बहुत - बहुत अमृत प्रेम ! Jain Education International For Personal & Private Use Only पूजा कभी www.jainelibrary.org

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