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स्वयं को दीजिए सार्थक दिशा
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जिसके मन में यह भाव हो कि वह किसी को कष्ट क्यों पहुँचाये, पीड़ा क्यों दे, वही शुभ विचारों और शुभ लेश्याओं का स्वामी होता है। वह सोचता है कि यदि दूसरा मुझे कष्ट पहुँचाये तो क्या मुझे अच्छा लगेगा? अगर हम स्वयं किसी के द्वारा कष्ट नहीं चाहते तो कृपया, आप भी किसी को कष्ट मत दीजिए। आज सबकी प्रायः यही प्रवृत्ति हो गई है कि हमारा सुख तो हमारा रहे ही, दूसरों का सुख भी हमारा हो जाय । यह उनका कदाग्रह है कि दूसरे का भी मिल जाये और नहीं मिले तो उसे हड़प लें। मित्र, तुम भी सुख से जिओ तथा और लोग भी सुख से जियें, तभी अहिंसा-धर्म जीवित होगा।
भगवान ने छः राहगीरों के रूप में छ: लेश्याएं वर्णित की- कृष्ण, नील, कपोत, तेजस्, पद्म और शुक्ल लेश्या। ये जो छः किस्म के लोग हैं जो हम में भी होते हैं, वे छः लोग इन छ: लेश्याओं के सूचक हैं। मैं बहुत संक्षेप में इनके बारे में कहूँगा। आप स्वयं देख लें कि आप किस लेश्या से सम्बन्धित व्यक्ति हैं ? यदि हो सके तो स्वयं को उस लेश्या से बाहर लाने का प्रयास करें। उससे अगली लेश्या में जाने का प्रयास करें।
लेश्या यानी जो आश्लिष्ट कर ले। जो घेर ले, जो हम पर हावी हो जाए, वह लेश्या है। मन की वह धारा, वह विचार, वह वृत्ति, जो हम पर हावी हो जाए, प्रभावी हो जाए, वह लेश्या है। व्यक्ति को जीवन में जिस पहलू पर सबसे ज्यादा जागरूक रहने की जरूरत है, वह स्वयं की मानसिक धारा ही है। उसी में ही राग-द्वेष के संस्कार पोषित होते हैं। उसी में कषाय का तिलिस्म रचता है। वहीं से तृष्णा के तीर चलते हैं। अज्ञान और मूर्छा का अंधा प्रवाह वहीं पर प्रवाहित है। हम लोग 'त्रिशंकु' की तरह बीच में अटके हैं। भीतर बाहर का द्वैत, भीतर-बाहर के भेद में जी रहे हैं। मनुष्य विवश है अपने भीतर के अंधे प्रवाह के आगे। व्यक्ति जागे, मन की धाराओं के प्रति। अपनी नकारात्मकताओं को हटाए और सकारात्मकताओं को स्वीकारें। नकारात्मकता सदा अशुभ ही होती है, सकारात्मकता शुभ ही होती है। नकारात्मकता यानी अशुभ लेश्या, सकारात्मकता यानी शुभ लेश्या। नकारात्मकता पर विजय प्राप्त करना सबसे बड़ी मनोविजय है।
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