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सकारात्मक सोचिए : सफलता पाइए
लेकिन जड़ छोड़ दूंगा ताकि वृक्ष फिर से लहलहा जाएगा।' तीसरे के मन में विचार आया, 'मैं जाऊँगा और पेड़ की बड़ी डाली को काटूंगा ताकि लकड़ियाँ भी मिलेंगी और भरपेट आम भी।' चौथे पथिक की विचारधारा ऐसी बही कि वह किसी छोटी-सी शाखा को तोड़ेगा ताकि दस-बीस आम मिल जायें और उसकी क्षुधा मिट जाय। पांचवें राहगीर के मन में आया कि वह जायेगा और उतने ही फल तोड़ेगा जिनसे उसका पेट भर जाय। छठे पथिक ने सोचा, 'अरे इतना विशाल वृक्ष है। जरूर वहाँ कुछ फल टूटे हुए पड़े होंगे। मैं जाऊँगा और दो-चार फलों को बीनकर अपना पेट भर लूँगा।'
ये छः राहगीर हैं। हम देख लें कि कौन-कैसा राहगीर है ? ये छहों हमारे ही प्रतीक हैं जिनमें इस तरह की भाव-दशाएँ उठा करती हैं, ऐसे विचार उठा ही करते हैं। एक सोचता है, ‘जाता हूँ जड़ से ही काट दूंगा' और एक सोचता है 'अगर मेरी किस्मत में होगा तो बैठे-बैठे भी मिल जाएगा।' ये वृक्ष कहाँ जाते हैं, यहीं तो खड़े हैं। किसी को काटते भी नहीं, तिस पर सबको तृप्त भी करते हैं, फिर क्या जरूरत हैं, इन्हें नष्ट करने की? लेकिन ऐसा हो कहाँ रहा है ?
आज की दुनिया में ऐसी लेश्याओं वाले, ऐसी भावदशा और विचारधाराओं वाले लोग ज्यादा होते हैं जो अन्यों को जड़ से काट देना चाहते हैं। यह मनुष्य की नकारात्मक सोच है। अरे, जो काम सुई से हो सकता है उसके लिए तलवार का उपयोग क्यों करते हों?
जो आज दूसरों को कष्ट पहुँचा रहा है, वह क्यों नहीं सोचता कि दूसरा भी उसे कभी कष्ट पहुंचा सकता है ? जितनी पीड़ा तुम्हें हो रही है, उतनी ही पीड़ा उसे भी होगी। जो धर्म के नाम पर पशुओं की बलि देते हैं, वे यह क्यों नहीं सोचते कि अगर हमारे पाँव में काँटा भी गड़ जाए तो कितना कष्ट होता है ? तब उस पशु को कितनी वेदना होगी? तुम्हारे बच्चे को इंजेक्शन लगाना पड़ता है तो तुम दहल जाते हो, लेकिन कटु वाणी बोलते समय, लड़ाई-झगड़ा करते, किसी का शोषण करते, धन ऐंठते और न जाने ऐसे कितने कर्म करते जरा भी ध्यान नहीं रखते कि इनसे दूसरों को कितना कष्ट हो रहा है ? तुम भूल ही जाते हो कि तुम्हारे इस तरह के कार्य अन्यों को कितनी पीड़ा पहुंचा रहे हैं ?
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