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सकारात्मक सोचिए : सफलता पाइए
किस क्षण व्यक्ति नरक में और किस क्षण में स्वर्ग में पहुँच जाता है । ' श्रेणिक ने पुनः पूछा, 'अगर उसके अगले क्षण में उनकी मृत्यु हो जाती तो?' 'छठे नरक' ‘उसके अगले क्षण?' ‘पाँचवें नरक', इस तरह घटते घटते पहले नरक तक आ गये ! फिर पहला देवलोक, दूसरा देवलोक... चौदहवें देवलोक तक बढ़ते गये। तब श्रेणिक ने टिप्पणी की, 'दो मिनट पहले सातवें नरक में और अब चौदहवें देवलोक में । भगवन्, अगर इसी क्षण उनकी मृत्यु हो जाये तो ?' भगवान दो पल मौन रहे। फिर खड़े होकर राजर्षि को प्रणाम किया क्योंकि अब वे मुक्ति के स्वामी हो चुके थे। मात्र पांच मिनट में यह घटना घटती है। दो मिनट पहले वह नरक और दो मिनट बाद स्वर्ग का पथिक बना और उसे मुक्ति तथा निर्वाण का स्वामित्व भी उपलब्ध हुआ ।
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राजा श्रेणिक इस पहेली को समझ न पाये । तब भगवान ने स्पष्ट किया कि तुम्हारे दो अंगरक्षकों की बात सुनकर राजर्षि का मन डगमगाया । वे शत्रु के साथ लड़ाई करने लगे। यह लड़ाई ही उन्हें सातवें नरक में ले गई। मन ही मन वे उससे लड़ते रहे। शत्रु राजा उन पर वार कर रहा था । उन्होंने सोचा कि इसे खत्म करने के लिए तो मेरा तीखा मुकुट ही पर्याप्त है, ऐसा सोचते हुए उनके हाथ सिर की ओर उठ गये । पर यहाँ, 'मुकुट कहाँ ! अरे कौन सम्राट्, किसका बेटा ! अरे, मैं कहाँ से कहाँ चला गया ? ये मेरी मन की धाराएँ कहाँ से कहाँ बह गईं ? मैं तो संत हूँ, मेरा सिर तो मुंडा हुआ है, मैं किससे लड़-झगड़ रहा था। ओह ! मैंने क्या से क्या कर डाला ?' विचारते हुए वे उच्च अवस्था को पहुँच गये।
जहाँ से गलत राहें बदलना शुरू होती हैं, वहीं होता है जीवन का सच्चा प्रतिक्रमण। उन्होंने जहाँ-जहाँ अतिक्रमण किया था वहाँ-वहाँ से उन्होंने अपनी चेतना को वापस लौटाना शुरू किया कि हो गये पर्यूषण और शुरू हुआ प्रतिक्रमण कि लौट आई चेतना स्वयं में। जैसे-जैसे चेतना गिरनी शुरू हुई,
क की गति भी निम्नतर होती चली गई और ज्यों ही चेतना वापस लौटी और मन की स्थितियाँ उच्च - उच्चतर हुईं कि स्वर्ग की सीढ़ियाँ भी श्रेष्ठ-श्रेष्ठतम होती चली गईं और मात्र चौथे मिनट में निर्वाण की चेतना उपलब्ध हो गई।
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