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स्वयं को दीजिए सार्थक दिशा
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बहुत प्रभाव पड़ा है। मैं पूर्व में भी इसका उल्लेख कर चुका हूँ, फिर भी वह मुझे बहुत ग्राह्य लगती है। घटना इस प्रकार है। राजर्षि प्रसन्नचन्द्र एक पाँव पर खड़े होकर, हाथ ऊँचे करके उग्र तपस्यारत थे। यम, नियम, आसन और प्राणायाम सब उनके साथ जुड़ गये थे। पहले वे राजा हुआ करते थे, किन्तु अब वे दीक्षा लेकर संन्यासी बन चुके थे। वे ध्यान में मग्न थे। तभी एक अन्य राजा श्रेणिक वहाँ से निकले तो वे सोचने लगे कि जब ये संसार में थे तब अपने आस-पास
और दूर देशों के राजाओं को पराजित कर सम्राट् बने और अब संन्यासी होकर अपने भीतर के शत्रुओं को जीत रहे हैं। ऐसे राजर्षि को मेरे कोटि-कोटि नमन हैं। इस प्रकार भावों में मग्न होकर वे वहाँ से आगे बढ़ चले ! ___ठीक उस समय जब राजा श्रेणिक के मन में नमन के भाव उठ रहे थे, तभी एक अद्भुत घटना घटती है। राजा के साथ जो अंगरक्षक सौ कदम दूरी पर चल रहे थे, आपस में बातचीत करने लगे। एक ने कहा, 'देखो, यह महाराज कितने धन्य हैं।' दूसरे ने कहा, 'मुझे तो पाखंडी नजर आते हैं। तुम्हें नहीं मालूम कि इसके राज्य को शत्रुओं ने घेर लिया है, इसके नाबालिग पुत्र को सिंहासन पर बिठाया गया है क्योंकि यह कायर था और राज्य छोड़कर भाग आया। इसके पुत्र की कभी भी हत्या हो सकती है।' वे दोनों बातें करते हुए आगे निकल गये, किन्तु राजर्षि का मन उद्वेलित हो जाता है। वे सोचने लगते हैं, 'क्या मेरे राज्य पर आक्रमण हो रहा है, क्या मेरे पुत्र को शत्रुओं ने घेर लिया है? मेरे रहते हुए ऐसा कदापि नहीं हो सकता।' इस तरह भीतर ही भीतर युद्ध शुरू हो गया। वे कल्पना में ही शत्रु राजा के समक्ष पहुँच गये और आपस में युद्धरत हो गये।
उधर राजा श्रेणिक भगवान के पास पहुँचता है और बताता है कि उसने एक महान् संत के दर्शन किये। 'भंते मेरा एक प्रश्न है कि जिस क्षण मैंने उनके दर्शन किये अगर उसी क्षण उनकी मृत्यु हो जाती तो उन्हें कौन-सी गति मिलती ?' भगवान ने कहा, 'अगर उसी क्षण उनकी मृत्यु होती तो उन्हें सातवें नरक जाना पड़ता।' वह चौंक गया क्योंकि उस समय तो वे ध्यानावस्थित थे। भगवान ने आगे कहा, 'राजन्, मन के विचार ऐसे ही होते हैं कि पता ही नहीं चलता कि
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