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पहला अनुशासन : समय का पालन
थे। हम बदल गए। हमारा तन बदल गया। हमारे बाल बदल गए। हमारे अंग बदल गए। हमारे हाथ में लाठी चली आई है। हमारी आँखें कमजोर हो चली हैं। सब बदल रहा है यहाँ। कल हम जवान थे, उससे पहले बच्चे थे, उससे पहले माँ की कोख में थे, उससे पहले शरीर के एक अणुभर, समय के एक कण भर थे। समय ने ही हमें कण से छ: फुट की काया दी। यही समय जब बदलना शुरू होता है, तो पुन: घटते-घटते हम सब लोग केवल एक मुट्ठी भर राख हो जाया करते हैं।
समय सबको बदल ही देता है। जो नदिया की धार इस समय इधर आ रही है, वह धार आगे चली जाती है। लगता है, धार वही है पर पानी आगे बह गया है। हमारे जीवन का एक चरण आगे चला गया। किन्तु सातत्य तो बना हुआ है, निरन्तरता बनी हुई है जिससे लगता है कि जीवन एक ही है। ये जो पंखें चल रहे हैं, सबको भलीभाँति पता है कि पंखे में केवल तीन ही पंखुरियाँ हैं लेकिन जब वह चलता है तो ऐसा लगता है जैसे उसमें तीस पंखुरियाँ होंगी। यह इस तरह चल रहा है कि पता भी नहीं चल रहा है। पहली पंखुरी कब दूसरी बन गई और दूसरी कब तीसरी बन गई ? आदमी को बोध तो तब हो, समय और जीवन का बोध तो तब हो जब आदमी रात को सोए तो काले बाल का आदमी हो और सुबह उठे तो सफेद बाल का आदमी बन चुका हो। तब आदमी को लगता है कि कहीं कुछ परिवर्तन हो रहा है वरना हर रोज आदमी स्नानघर में जाकर नहा लेता है या गंगा में जाकर डुबकियाँ लगा लेता है और जब वह फिर-फिर आईने के सामने पहुँच कर देखता है तो वह टनाटन, बिल्कुल वैसा का वैसा लगता है। पर ऐसा नहीं है क्योंकि वह रोज-ब-रोज बदल रहा है। सृष्टि परिवर्तनशील है, समय परिवर्तनशील है।
मैं खड़ा था एक बार महादेव के मंदिर में। वहाँ शिवलिंग पर एक कलश लटक रहा था। लोग आते हैं और जलेड़ी पर पानी ढुलकाते हैं, पानी गिरता है
और बह जाता है। मैं जब महादेव के उस शिवलिंग को देख रहा था कि देखतेदेखते मेरी नजर उस कलश पर चली गई जिससे एक-एक बूंद पानी शिवलिंग पर चढ़ रहा था। मुझे जीवन की प्रेरणा मिल गई कि यह जो कलश रखा है, यह
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