Book Title: Sakaratmak Sochie Safalta Paie
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 101
________________ 94 सकारात्मक सोचिए : सफलता पाइए किसी दूसरे को मत बेचना । ' दूसरे दिन वह बालक गया और वह पिल्ला खरीद लिया। दुकानदार से रहा न गया। उसने पूछ ही लिया, 'बेटा, तुमने यही पिल्ला क्यों खरीदा ?' तब उस बालक ने अपनी पेंट खोली। दुकानदार विस्मित हो गया क्योंकि उस बच्चे के भी एक ही टाँग थी। वह अभिभूत होकर बोला, 'तुम ही इसका दर्द समझ सकते हो ।' जिसके स्वयं के पाँव नहीं हैं, वही किसी पंगु के दर्द को समझ सकता है। इंसानों से प्रेम का प्रारम्भ होता है जबकि पशु, पक्षी और प्रकृति पर प्रेम का विस्तार होता है और परमात्मा पर जाकर प्रेम पूर्ण होता है। इंसान और प्रकृति दो सोपान हैं लेकिन प्रेम की पूर्णता परमात्मा पर ही होती है। तब वह प्रेम की पराकाष्ठा उपलब्ध करता है। पूछें किसी मीरां से, चैतन्य प्रभु से, कबीर, तुलसी या नानक से कि प्रेम कैसे पूर्ण होता है ? प्रेम चाहता है त्याग और समर्पण। प्रेम तब पूर्ण होता है जब दो, दो नहीं रहते अपितु वे एक हो जाते हैं। ज्यों-ज्यों व्यक्ति का प्रेम परमात्मा के प्रति बढ़ता है, परमात्मा उसके करीब और करीब आता है। किन्हीं मंत्र - पाठों से या ऊँची-ऊँची आवाजों में पुकारने से अल्लाह या भगवान नहीं आता । वह तो प्रेम भरी पुकार से उतर आता है। चूल सुभद्दा नामक एक महान भक्त हुई है। वह भगवान की उपासिका थी तथा उनसे बहुत प्रेम रखती थी। लेकिन उसका विवाह एक नास्तिक के घर में हो गया। भगवान का नाम लेना उस घर में सख्त नापसंद था। चूल सुभद्दा और तो कुछ न कर पाती, लेकिन जब भोजन करती तो कहती, 'हे भगवान्, यह प्रसाद स्वीकारो ।' नहाती तो अपने पाँवों को भगवान के चरण मानकर प्रक्षालन करती और कहती, 'हे भगवान्, मेरी सेवा स्वीकार करो।' उस घर में तो भगवान का नाम लेना ही पाप था। कहीं बाहर जाती तो कहती, 'मैं जहाँ जा रही हूँ, वह तेरा ही मंदिर है प्रभु । तेरी परिक्रमा करने जा रही हूँ ।' प्रतिदिन वह हाथ जोड़ती और मन ही मन भगवान् का अनुग्रह मानती । एक दिन श्वसुर को खीझ आ गई कि रोज-रोज यह कैसा ढोंग करती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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