Book Title: Sagardatt and Lalitang Rasaka
Author(s): Shantisuri , Ishwarsuri, Shilchandrasuri, H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ [15] ससिवयणि पिक्खिवि दीण, इम चीतव्यु मनि तीण ॥७३ गाहा सव्वंग-रिद्धि-नासो, उवहासो नयर-लोय-मज्झम्मि । न तहा दुम्मइ चित्ते, जहा कलत्तस्स दासत्तं ॥७४ दहा जिह जीवंता घर-घरणि, पर-घरि कम्मु करेइ । सो कह जीवइ किं न मुर, धरणि-भारु करेइ ॥७५ दासत्तणु एकं गमइ, बीजउ वित्त-विणासु । घरणि रुलंती पिक्खि करि, हिउ न फुट्ट हयासु ॥७६ जाया काइं जग- माहि, ते जणणि काइं जाइया । जीहं होइ न आहि, कुणबा जीवेवा तणी ॥७७ भागउं लाकईं लोहडउं, सल--सूत्रहिं संधाइ । पुण भागउ सलु माणुसह, जिम तिम न-वि समराइ ।।७८ साल संखि सलकी सयरि, आफे आणइ अंगि । सलु विह डयउ विवहारिया, किमइ न आवइ अंगि ॥७९ घात इय वि किविण चित्तु घण दुण्णु, (?) खामोवरि पइ भणइ, देहि कट्ठ कट्ठिहि पडंत घ दालिद्द दूहव दलिय, उयस्कज्जि अइ रडखडंत घ । जउ धुरि लग्गु न संपडत, तउ मनि दुहु न कराई जा वेयण चक्ख, सा जाचंध न थाइ ८० भणइ कामिणि भणइ कामिणि निसुणि भरतार धीरत्तणु कह गमिसि, जइ-वि वित्तु सव्वंगु नट्ठउ । करि साहसु सव्व--गुण, समरि पंच परमिट्ठि तुट्ठउ ॥ नल- हरिचंदह रावणह, लच्छि नत्थि किं गेहि । जीवंतां वलि संपडइ, सहूअइ सज्जइ देहि ।।८१ देहि सज्जइ, देहि सज्जइ, वित्तु वलि होइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114