Book Title: Sagardatt and Lalitang Rasaka Author(s): Shantisuri , Ishwarsuri, Shilchandrasuri, H C Bhayani Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi AhmedabadPage 73
________________ [60] चालि इक-नीक्कारणि एक, अइ-करइँ पाव अनेक। हिंसंति जीव अणाह, ते हुसइँ केम अणाह ॥२१३ जंपंति इक बहु कूड, ते हुइ दुह-गिरि-कूड। हठि हर पर-धण लोभि, लज्जवि अप्प-कुलोभि ॥२१४ लोपइँ ति लंपट शील, तिहँ किसिय निय-गुरुशील । अइ-करइँ बहु आरंभ, तिहँ धरइँ धुरि संरंभ ॥२१५ मनि धरइँ बहुअ कसाय, तसु छेहि कडुअ कसाय । वंचइ ति पियगुरुमाय, जसु माय किहँ नवि माइ ।।२१६ इम अछइँ बहुअर पाप, जीहँ तणउ कलि बहु व्याप । न कर ति कारणि धर्म, जोदिइ सवि शिव-शर्म ॥२१७ अछइ निग्गुण देह, तसु तणउ लाहुसु एह। किज्जइ जि पर-उवयार, संसारि इतुं सार ।।२१८ विहलिय विविहि वसि साहु, नवि करइ कम्म असाहु । छहपीड-पीडिय-हंस, नवि करइ कीडिय हिंस ॥२१९ कापुरिस कुवसण कूडि, लिज्जइ सु लहु पर-कूडि। छलि छलइ कोइ न छेक, सुजिलहइ धम्म-विवेक ॥२२० सुणि सुयण सच्चह सार जगि धम्म इक्क जि सार । नवि मुणइं गाम गमार, तउ धम्म सिउँ ति असार ॥२२१ महु महुर दाडिम दाख, बहु--फलिय सुम सय-साख । तिहँ करह गय मुह मोडि, तउ लग्गसिउँ तिणि खोडि ॥२२२ षट्पद बहिरइँ गीय नवि सुणिउ भमर चंपकि न बइठ्ठउ, सोल कला-संपन्न चंद अंधलइँ न दिट्ठउ। कर-हीण. पंगुलइँ कढिण कोदंड न ताणिउ, तरुणी-कंठ विलग्गि तुंड-रसभेय न माणिउ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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