Book Title: Sagardatt and Lalitang Rasaka
Author(s): Shantisuri , Ishwarsuri, Shilchandrasuri, H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 99
________________ [86] हुअ सव्वलोय-उहाणि, पर-चित्ति अप्पण हाणि ॥ ४२४ तव हुअ कलियल सद्द, घण घोर काहल-नद्द । धाया ति धसमस धीर, कोइ हणिउ घायगि वीर ।। ४२५ तं सुणिय सुयण-विणास, ललिअंग पुण्ण-पयास ।। गलयलिय-कंठि कुमारि, इम भणइ पिय अवधारि ।। ४२६ कहि पाण-पिय तम हेव, जइ कहिउं करत न देव । किम हुंत अबला बाल, विण कंत काम-रसाल ।। ४२७ विण-नाह नारी हीण, जिम हुइ दुत्थिय दीण । नवि करइ कोइ तसु सार, विण पाणनाह-आधार ॥ ४२८ दहा नाह-पखइ नारी जिसी, जिम दव-दाधी वेलि । नीरस निष्फल निग्गुण इ, दैवि विडंबी मेल्हि ॥ ४२९ देव कि दिउ सिरि माहरइ, जउ खर-खग्ग-पहार । वल्लह-विरह-विछोहियां, तउ तउं जाणइ सार ।। ४३० दैवह दाखउं वाटडी, जइ देखउं निय-अंखि । विरह-विछोह्यां माणसां, कांइ न सिरजी पंखि ॥ ४३१ देव दया करि माहरी, नवि भाजी जिम आस ।। तिम तरुणी तारुण्ण-रस, ढोलि म ढोलि निरास ॥ ४३२ नाह-सरिस गुण गोरडी, नव-रंग नागर-वेलि । जइ सिरजी फल-हीण-गुण तोइ स कुंपल मेल्हि ।। ४३३ गाथा इअ पुप्फवइ पेमं, खेमं नाऊण पाण-नाहस्स । । पुणरवि पिय-हिय-कज्जं, गय-लज्ज भणइ सुणि नाह ।। ४३४ मम सूइसि निच्चं तो, कंत कयंत व्व तुम्ह पाणहरो । पच्चूसे पिय एसो नरराओ कूड-विक्खाओ || ४३५ ता अद्ध-रज्ज-सिन्नं, हय-गय-रह-सुहड-सार-संकिण्णं । मेलित्तु झत्ति चिट्ठसु, चंपापुर बहिय-उज्जाणे ॥ ४३६ अह सुणिय तीइ वयणं, सुदिट्ठ-नयणं कुमार-सार-बलो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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