Book Title: Sagardatt and Lalitang Rasaka
Author(s): Shantisuri , Ishwarsuri, Shilchandrasuri, H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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[89] संग्रामि चड्या क्षत्रिय न गिणइं सगपण न सगाई, पिण एक वार मुझ सिउँ संग्राम कीधा विण तुम्हे एवडी वात कांइ फुरमाई' । इम कही- नि अन्योन्य राजा नइँ कुमर हस्या, स-दंडायुध लेई परस्परइ सुभट सुभट प्रति साम्हा धस्या हुवा लागउं जूझ, किसँ वर्णवि अबूझ । वात कहतां रोमांच ऊपजइ अंगि, ते राउत भला जे झूझि रणांगणि रंगि ॥ ४४७
पद्धडी
गय गजवर हयवर हय जुडंति, रह पायक पायक-सिउं भिडंति । झलहलइ खग्ग खर करि कराल, जाणीइ कि अहिणव विज्जु-झाल ॥४४८ खडखडइ खग्ग खेडय खटक्क, त्रुटुंति सरल धणु गुण तडक्क । कि-वि करइ धणुह-टंकार-नद्द, फुटृति कोडि बंभंड सद्द ।। ४४९ सिंगिणि-गुण वज्जइ तरल-तीर, कर फलह फुट्टि विधइ सरीर । कि-वि करइं वीर मुहि सीह-नाद, इक इक्क घाइ गुण लिति वाद ।।४५० झडि पडइ सुहड धड उवरि मुंड, घण-घाइ के-वि किज्जइ दु-खंड। खलहलि खोणि-तल रत्त खाल, संपुण्ण-पलल-जंबाल-जाल ।। ४५१ इक इक्क के-वि नामइं न सीस, मारत इक्क मणि सरई ईस । इक चडइ तुरंगमि अस्सवार, भेदिज्जइ भड इक्क भल्ल-धार ॥ ४५२ संभरइ इक्क घर-घरणि वीर, फुरकंति पवणि भड-मोलि-चीर । इक्क चडइ सुहड रण दंति-दंति, कि-वि धरइ किवण अंगुलिय दंति ॥ ४५३ नासंति इक्क निय जीव लेवि, सज्जंति सुहड सन्नाह के-वि । बुलंति सुहडवर बिरद बंद, पिक्खंति गयणि सुर इंद चंद ॥ ४५४ चउसट्ठि चंड चामुंड नार, भरि खप्पर रुहिर पियंति वीर । वज्जंति महा रण तूर घोर, जसु सवणि सूर उप्पजइ जोर ॥ ४५५ इम हुअ बिहुं दलि रण बहुअ वार, इकइक्क के-वि जाणइँ न सार । भज्जत भूव-दलि दिट्ठ पुट्ठि, जोअंति कुमरि तव सहिय पुट्ठि ।। ४५६
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