Book Title: Sagardatt and Lalitang Rasaka
Author(s): Shantisuri , Ishwarsuri, Shilchandrasuri, H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

Previous | Next

Page 110
________________ [97] सिउं बहुअ जंपिउं आल, मुणि सामि बहु-गुण-साल । हउं तुम्ह बहु-दुह-हेउ, हुअ अज्ज-दिण-लगि जेउ ।। ५३९ तं खमिय मुझ अवराह, तउं सयल भूव-वराह। किय भेउ चंपह रज्ज, आइसिय कोइ तसु कज्ज ॥ ५४० मुझ दिउ तुम्ह पय-वास, म म करिसि ताय निरास । ए अछइ तुम्ह गुण-दोसि, तुम्ह लहुअ वहुअ सुहासि ।। ५४१ तसु दिसउ जं बहु वज्ज, निय-कुलह मग्गसु कज्ज । इम भणिय कुमर-नरेस, धरि रहिउ मून असेस ॥ ५४२॥ कालमुह कुमर सु पिक्खि, दिक्खंत निय निव पक्खि । नरवाहि निय करि वाणि (?), उववेसि निय-पय-ठाणि ॥ ५४३ वद्धारि तिलय सुभालि, विचि विमल अक्खय-सालि । सिरि धारि निव निय छत्त, नच्चंत नव नव पत्त ॥ ५४४ बहु धवल मंगल नारि, सवि सुहव दिति वियारि । वज्जंति बहुअर तूर, बहकति अगर कपूर ॥ ५४५ बहु भत्ति भोयण चंग, तंबोल-पान सुरंग । पहिरावि सवि नरराय, बहु-मुल्ल चीर पसाय ॥ ५४६ घण कणय-कप्पड दाण, अप्पीइ बहु केकाण । मग्गणह पुज्जइ आस, दुह रोर जांइ निरास ॥ ५४७ घरि घरि सुउच्छव-रंग, घरि घरि सुमंडिय । घरि घरि सुतोरण बारि, घरि घरि सुमंगलचारि ॥ ५४८ उब्भविय धयवड पोलि, बहु नारि मिलई सुटोलि । गायंति महु-सरि गीत, विहसीइ साजण-चीत ॥ ५४९ सवि सहुय दिइं आसीस, वद्धारि तिलय सुसीस । ललिअंग कोडि वरीस, पूरवउ जगह जगीस ॥ ५५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 108 109 110 111 112 113 114