Book Title: Sagardatt and Lalitang Rasaka Author(s): Shantisuri , Ishwarsuri, Shilchandrasuri, H C Bhayani Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi AhmedabadPage 94
________________ [81] पिण भली न खल-प्रीति, हुइ नितु बुह-चीति, पडइ पिसुण-छीति, पवरजणं । इम जंपइ रायकुमारि ।। ३७९ षट्पद अम्ह वयण अणुकूल कह-वि मन्नि जइ सामिय, देवि सद्द जिम वाम राम देसंतरगामिय । कुलह नामि आचार एह नवि सिक्ख स-कंतह । दिज्जइ कारणि कवणि सु पुण प्रियतम एकंतह । परिहरउ प्रीअ खल जल सुयण, संख जेम बहि धवल गुणि इम भणइ वर वीनती सुहिय, हियइं अवधारि सुणि ।। ३८० पूर्वी-वयण वालंभ वयण सुणउ इकवलि लिउं दूखडा जिसंचउं अमिएण कि निंबहरूखडा । तो वि कूडउ जण साउन साउन मिल्हइ अप्पणा फुणिहाँ अइ जातइ जाति-सहाव कि दुज्जण-जण तणा ॥ ३८१ जइ रोपउ थुडथूल कि थाणइँ थिर करी जइ सींचउ थण-दूधि कि सूधइ मनि धरी । तावि कुमूल बबूल कि कंटा भज्जणा फुणिहाँ अइ जातइ जात सहाव० ॥ ३८२ कुंकम कूर कपूर किज्जई घण लाईइ । मृगमद-गंध सुगंध कि दिव्विहिं ठाईइ । तावि ल्हसण नवि मिल्हइ गंध कि अप्पणा फुणिहाँ० ॥ ३८३ जइ व हीइ सिरि घालि करंडिहिँ देहसिउं जि पोसउ निसदीस कि दूधइ तेह-सिउं । तावि भुअंगम संगमि होइ न अप्पणा फुणिहाँ अइ जातइ जाति-सहाव० ॥ ३८४ धरम सु-गुणि धणि आखइ दाखइ नेहुलउ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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