Book Title: Sagardatt and Lalitang Rasaka
Author(s): Shantisuri , Ishwarsuri, Shilchandrasuri, H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 92
________________ [79] गरुआ एह सहाउ चाउ-चतुरिम-गुण-- चंगा । साउ जल सुसमत्थ सदा गुणियण-जण-संगा ॥ न्हाण दाण बहुमाण भत्ति भोयण-सुयणह सह । कारिय बहुअ पसाउ-राउ ललियंगकुमारह ॥३६६ उत्तम उत्तम सहज निय मिल्हइँ नवि-मरणंति निनाडिय ताविय तोलिय वि कणय समुज्जल--कंति । कणय समुज्जल--कंति घसिय जिम चंदणि परिमल इच्छु-दंड कियखंड सुघण पल्लंत सुर सहलं ।।। बहुअ वास सह आसि दिद्धं कण्हाग-राय तिहि उत्तम उत्तम नवि सहाव मिल्हई मरणंतिहिँ ॥३६७ कुमर भणइ सुणि सुयणनर धण्ण दिवस मुझ अज्ज । रज्ज-रिद्धि सव्वंग पुण हुई सहल कय-कज्ज । हुई सहल सह रिद्धि मिल्यउ जव दुक्खि सहाई तिणि बहु धणि सिउँ कज्ज जं च जाणइँ नवि भाई ॥ सुयण अनइ अरियणह जेउ सुह दुह नवि दिइ नर । ते धण धूलि- समाण जाणि इस भणइ कुमर-वर ॥ ३६८ गाथा इअ बहुमाण- पहाणो, पहाण-पुरिस व्व कुमर नवि रज्जे । लद्ध-समय-बल-निउणो, सुयणो पुण जंपए एवं ॥ ३७० सामिय अहं अहण्णो जया गओ तुरय-रयण--संजत्तो । मुत्तुं तुमं व पुण्णं मग्गे मिल्लिया तया चोरा ।। ३७१ तेहिं दढ मुट्ठि-जिट्ठी-पहार-मारेण गहिय-पवरासो । दासो हं तु निरासो, जीवंतो मुक्किओ तत्तो ॥ ३७२ इत्थागएण समए, मए तुमं पुव्वपुण्ण-जोगेणं । पत्तोसि देव संपइ, संपइसुह कारणं परमं ॥ ३७३ ता झत्ति संविसज्जसू, दूरं देसं तओ भणइ-कुमरो । मा खिज्जसु खित्त-घणं निब्भंतं भुंज सुहमसमं ।। ३७४ अह अत्रया कुमारी तस्सागारिंग-चिट्ठ-दुट्ठत्तं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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