Book Title: Sagardatt and Lalitang Rasaka Author(s): Shantisuri , Ishwarsuri, Shilchandrasuri, H C Bhayani Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi AhmedabadPage 81
________________ [68] अन्नोन्न चवइ ते मणुअ-भाखि। निय-निय-मालइ ठिय वङ-सु-साखि ॥२७४ कछु दिठउँ जं जिणि अइ-अपुव्व । कोऊहल किंपि सुणिउ ति सव्व ।। तसु मज्झिहिँ बुल्लिउ इक्क पक्खि । सवि सुणउ ति कलियल सद्द रक्खि ॥२७५ जं कहउँ वत्त अपुव्व एअ मइँ दिट्ठी जण मुहि सुणिय जेअ । इम सुणिय ते-वि निप्फंद-नयण हुअ सुणइँ सव्व तसु पक्खि-वयण ॥२७६ अह अच्छइ अमरावइ-समाण दिसि पुव्वि अपुव्व सु-नयरि-ठाण । गय-कंप-चंपनयरि हिँ पसिद्ध बारसम सु-जिणवर जिहँ सु-सिद्ध ॥२७७ तिहँ धम्म-नाइ-निउणेगरज्ज साहसिय सूरसुंदर सकज्जु । विहि-दिद्ध सिद्ध सच्चत्थ-नामि रेहइ नि-राय जियसत्तु-नामि ॥२७८ गुणधारणि धारणि नाम तास बहुरूव-कल तु-कला-निवास । तसु पुत्तिय पुप्फावइ सु-नाम पिय-माय सु-परियर पेम-धाम ॥२७९ रूपिहिँ करि जाणि कि रंभ एह नव-वेस कलागम-गुण-सुगेह । बहु-भरह-भाव-संगीय-सारि सारय किं मनावी तीणि हारि ॥२८० इक जीहि सु-कवियण तासु रूव वण्णवइ विबुह बहु-सम-सरू व । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114