Book Title: Sagardatt and Lalitang Rasaka Author(s): Shantisuri , Ishwarsuri, Shilchandrasuri, H C Bhayani Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi AhmedabadPage 55
________________ [42] गाथा तप्पुत्तो सव्वुत्तो, सव्व-कला-कोसलेण संपुण्णो । ललियंग-नाम-कुमरो, ललियंगि-विलास-वर-भमरो ॥७ षट्पद सकल-सुयण-गुण-वट्टि-पत्त बहु-नेहहँ पूरिय दुह-दूरिय-रिउ-वग्ग-मग्ग-तम-भर-संचूरिय । भासुर-तेय-सुदित्त जित्त जिणि रवि-ससि-मंडल पयड-पयाव-पयंड सुहवि किरि लहु आखंडल अच्छरिय एहु जसु देहु नवि, पाव-पंक-कज्जलु किरइ जस कित्ति झत्ति निय-कुल-भवणि, कुल-पईव जिम विप्फुरइ ॥८ साटक (=शार्दूलविक्कीडित) भत्ती देव-गुरुम्मि जम्म-पभिई पीई परा पाणिणो, सम्माणं मय-णाण-ताणममलं अत्ताण सत्ताण य । सच्चं सीलमणिदियं सुविउलं भिच्चेसु वच्छल्लयं, एवं तस्स गुणोदओ-वि लहुणो कप्पूर-गंधस्स वा ॥९ गाथा एवं भूरि गुणस्स वि, तस्सासी वसणमुत्तमं दाणे । कस्स मणो कत्थ वि पुण, रइं कुणइ जह सुयं लोए ॥१० दूहा कुणही-नइ काँई रुचइ, कुणही-नइ काँइ सुहाइ । भमरु कमलिणि रइ करइ, दद्दुरु कद्दमि जाइ ॥११॥ गाथा जो जस्स जाणइ गुणा० ॥१२ जि बहुफलेहि फलीउ० ॥१३ हंसा रच्चंति सरे० ॥१४ दहा जिणि नवि पुज्जिउ तित्थयरु, पत्ति न दिद्धउ दाणु । तिणि करि करि सिउ बप्पडउ, करिस्यइ नरु अहिमाणु ॥१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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