Book Title: Sagardatt and Lalitang Rasaka Author(s): Shantisuri , Ishwarsuri, Shilchandrasuri, H C Bhayani Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi AhmedabadPage 60
________________ [47] जस-कुसुम सुं भिलिय ।। नर-- भसल-भिंभलिय, भोग-फल- सउं फलिय, एरिसउ रज्ज -पायव कलिय, वसण- नदी-जलि खलभलिय, नरवाहण-सुअ इम संभलिय, भंति सयल हरिहिं टलिय ॥५७ गाथा पुत्त पहाणो वि सया, जइ एसो महियलम्मि दाण-गुणो । तह वि- हु अत्ता-सत्ती, तत्थ तुमं सोहणो नवरं ॥५८ सव्वेसु सुकज्जेसु, वि मज्झत्थ-गुणो सुहावहो [हो]इ । अइकप्पूराहारो, महवइ किं दसण-पडणस्स ॥५९ दहा अतिहि नमंता जाइँ गुण, थड्डिम नेह न होइ । मज्झिम गुण सेवंतयाँ, कुंभ भरंतउ जोइ ॥६० अइसीइहिँ तरुवर दहइँ, अइ-घण-वुट्ठि दुकाल । अइदानिहिँ अणुचितपणउं, अइ सहु आल-झमाल ॥६१ अतिहि न भल्ला वरसणा, अतिहि न भल्ला धुप्प । अतिहि न भल्ला बुल्लणा, अतिहि न भल्ली चुप्प ॥६२ गाथा इणमेव सुपंडिच्चं जं आयाओ वउ वि विसेसेण । जह पुत्त पुत्त-पुव्वं, पभणंति विसारया एवं ॥६३ कुंडलिया विण- अज्जण जे वय कर, विण- सामिय बहु रोस । अतुरपणि अवसर विसरि, जं वियरइँ निय कोस, जं वियर निय कोस सोस बहु करइँ इकल्लउ, ते इत्तर अणुचित्त मूरिख धुरि जाण पहिल्लउ, खज्जंतां खय जंति मेर महियर सम बहु-धण, पइदिणि दंड-समाण जेउ वियरण विण-अज्जण ॥६४ गाथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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