Book Title: Sagardatt and Lalitang Rasaka Author(s): Shantisuri , Ishwarsuri, Shilchandrasuri, H C Bhayani Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi AhmedabadPage 69
________________ [56] चिंतइ अहो किमेवं, पुरओ एआण जं नाओ ॥१६४ जं पुण्ण-पाव-लक्खण-लखण रहियाण नायपडिवत्ती। तं कणय-भल्ल-भल्ली, जंबाले जोइया विहिणा ॥ १६५ जइ बहु अरंसु तिल्लं ता किं लिप्पेइ गिरिवरे मूढो । जइ बहुवीयं सगिहे, ता किं को ऊसरे वचइ ॥१६६ जइ चंदणं घणं, ता किं कोइ दहइ कदन्न-वागस्स । जइ खीरं बहुअअरं, पाइज्जइ किं भुअंगस्स ॥१६७ (जइ) कणय-रयण-माला, ता को बंधेइ कायकंठम्मि । जइ बहु-दुग्गल पयरो, किं किज्जइ वाडि-परिहाणं ॥१६८ किं बहु-बुहजण-नाओ, जइ किज्जइ मुक्ख-पामर-जणेहिँ । ता वुच्चत्तपरत्तं, जायं उवहाणयं सच्चं ॥१६९ दूहा जिहिँ कप्पिय कप्पूर-तरु, किज्जई कयरह वाडि। सहिय ति निग्गुण-देसडइँ, किं न पडइ नितु धाडि ॥१७० जिहाँ लीला काएण-सँ, कोइल कलिरव मोर। सहिय ति निग्गुण-देसडइँ किं न पडइ नितु चोर ॥१७१ जिहँ मयगल-मय-मत्त-सम, कारिज्जइ खर-कज्ज । सहिय ति निग्गुण-देसडइँ, किं न पडइ घण-विज्ज ॥ १७२ जिहँ समसरि तोलइ तुलइँ, कणय कपासकपूर। सहिय ति निग्गुण-देसडइँ, किम उग्गइ नितु सूर ।। १७३ जिहँ कोइल-कुलकलियलह, करइ ति काय परिक्ख । ते वण वणदव कवलिसुं, कवलिय किं न सरिक्ख ॥१७४ गाथा इय चिंतिउण कुमरो, जावलिउं तुरियतुरयमारूढो । तप्पिट्ठि-संठिओ पुण, सगव्वमेयं भणइ सुयणो ॥१७५ वस्तु : तव पयंपि तव पयंपि सुयण सुवहास, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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