Book Title: Sagardatt and Lalitang Rasaka
Author(s): Shantisuri , Ishwarsuri, Shilchandrasuri, H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 63
________________ [50] गाथा परिपालिउण सुचिरं, दाणगुणं गुण-दुमस्स मूलं च । किविण-कुढारेणं, किं छंदसि छेय छल भत्थे । ८२ धीरत्तं सूरत्तं सुयर-कोलाइएसु जीवेसु सलहिज्जइ किं न पुणो, दाणं दोघट्ट-राएसु ।। ८२ यतः सूरोसि परदल-भंजणो सि गुरुओसि भद्दजाउसि । दाणेण विणा सुंदरि, न सोहए दंत निक्करडी ।। ८४ (भद्दकुले उप्पन्नो, उत्तुंगो राय-बार-सोहणओ। दाणेण विणा सुंदरि, न सोहए दंत निक्करडी ॥८५ उड्डाह-तिरिय-भुवणे, कित्तिं परिपेसिऊण दाणेण । संपइ संपइ-लुद्धस्स, कोवि तुम पगइ पल्लट्ठो ॥८६ संगह-परो समुद्दो, रसायलं पाविऊण संतुट्ठो। दायारो पुण उवरि, गज्जइ भुवणस्स जलहरो ॥८७ एवं निसम्म कुमरो, दूमिय-हियओ हओव्व बाणेण । मग्गण-मुह-कोदंडय-निग्गय-अववाय-रूवेण ॥८८ चिंतइ हा कीस अहं, पडीओ खलु वग्घ-दुत्तडी-नाए । अहवा किरि सप्पेणं गहिया छुच्छंदरी व्व जहा ।।८९ ।। अह गिलइ गिलइ ऊअरं० ॥९० इक्कत्तो रुअइ पिया, अन्नत्तो समरतूरनिग्घोसो । पिम्मेण रण-रसेण य, भडस्स दोलाइअं हिययं ॥९१ दूहउ भरउँ त भारी होइ, आधउँ करउँ त झलहलइ । बिहुँ परि विसमउँ जोइ, नवि लेती नवि मेल्हती ॥९२ पद्धडी चितवइ कुमर निय चित्ति एम बिहुँ गमि गुरु-संकडि करउँ केम, इक्कइ दिसि नरवइ-आणभंग, अनि-वि दिसि विणसइ कित्ति चंग ॥९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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