________________
( २१ ) और तो और, समर्थ वृत्तिकार आचार्य अभयदेव ने भी अपनी वृत्ति के प्रारम्भ में लिखा है कि “इस शास्त्र की प्रायः कूट पुस्तकें (हस्त-लेख) मिलती हैं। हम अज्ञ हैं और यह शास्त्र बहुत गंभीर है, अतः विचारपूर्वक ही सूत्रार्थ की योजना करना चाहिए।" और वृत्ति की समाप्ति पर पुनः आचार्य ने लिखा है कि शास्त्रीय आम्नाय (परम्परा) से रहित हमारे जैसे व्यक्तियों के लिए इस शास्त्र का बोध करना कठिन है । अतः हमने यहाँ जो और जैसे अर्थ किए हैं, वे ही ठीक हैं- ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए। आचार्य अभय देव के उक्त उल्लेखों पर से प्रतिध्वनित होता है कि आगमों का शब्दशरीर व्यवस्थित नहीं था। अर्थबोध की परम्परा भी अस्तव्यस्त हो चुकी थी। उपलब्ध प्रतियां भी विश्वसनीय नहीं थी, तभी तो वे कहते हैं--'प्रायोऽस्य कूटानि च पुस्तकानि ।'
- आश्रव और संवर ___ वर्तमान जैन आगम साहित्य में प्रस्तुत प्रश्न व्याकरण सूत्र का अपना एक विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है । नाम ही कितना अर्थगंभीर है-'प्रश्नव्याकरण अर्थात् प्रश्नों का व्याकरण, समाधान, उत्तर । जिस प्रकार तन के रोगों का प्रश्न मानव के समक्ष अनादि काल से एक जटिल प्रश्न रहा है, उसी प्रकार साधक के समक्ष मन के रोगों का प्रश्न भी है। तन के रोगों से भी अधिक भयंकर हैं मन के रोग । तन के रोग तो अधिक से अधिक एक जन्म तक ही पीड़ा देते हैं, अगले जन्मों तक तो ज्वरादिरूप देहरोग आत्मा के पीछे नहीं दौडते हैं, शरीर के साथ यहीं-के-यहीं रह जाते हैं । परन्तु मन के रोग तो जन्म-जन्मान्तरों तक पीछे दौडते रहते हैं। अतीत में अनादि अनन्त काल से आत्मा को पीडित करते रहे हैं, और यदि समय पर नहीं संभला गया, उचित प्रतिकार नहीं किया गया, तो भविष्य में भी अनन्ता
३७ --अज्ञा वयं शास्त्रमिदं गभीरं,
प्रायोऽस्य कूटानि च पुस्तकानि । सूत्रं व्यवस्थाप्यमतो विमृश्य,
व्याख्यानकल्पावित एव नैव ॥ ३८ परेषां दुर्लक्ष्या भवति हि विवक्षा स्फुटमिवं,
विशेषाद् वृद्धानामतुलवचनज्ञानमहसाम् । निराम्नायाधीभिः पुनरतितरां मादशजनैः, ततः शास्त्रार्थ मे वचनमनघं दुर्लभमिह ॥ ३ ॥ ततः सिद्धान्ततत्त्वज्ञः, स्वयमूह्य सुयत्नतः । न पुनरस्मदाख्यात, एव ग्राह्यो नियोगतः ।। ४ ॥